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________________ ईर् गतौ धातु का योग है-भास् +ईर् +इटन्- भीरिटम् वीरिटम्। आचार्य तैटीकि के मत का उल्लेख करने के बाद यास्क इस संबंध में अपना मत प्रतिपादित करते हैं। इनके अनुसार भी वीरिटम् का अर्थ अन्तरिक्ष होता है-कीरिटमन्तरिक्षं भियो वा मासो वा तति : अर्थात् इस अन्तरिक्षमें भय एवं प्रकाश का विस्तार होता है। इसके अनुसार इस शब्दमें भी + तन् धातुओं का या भास् +तन् धातुओंका योग है। भी धातु +तन् = भीरिट वीरिट, भास +तन भीरिट वीरिट। यास्क के मत की अपेक्षा आचार्य तैटीकि के निर्वचन अधिक भाषावैज्ञानिक हैं। यास्कके निवर्चनोंमें ध्वन्यात्मक औदासिन्य है जबकि आचार्य तैटीकि के प्रथमदो निर्वचन ध्वन्यात्मक दृष्टि से भी उपयुक्त हैं। अर्थात्मक आधार सभी निर्वचनोंके उपयुक्त हैं। वीरिटम् का प्रयोग उक्त अर्थमें लौकिक संस्कृतमें प्रायः नहीं देखा जाता। (१२४) नियुत :- इसका अर्थ होता है नियमित। निरुक्तके अनुसार १. नियुतो नियमनाद्वा१०९ अर्थात् नियमन होने के कारण नियुत: कहलाया। इसके अनुसार इस शब्द में नि +यम् उपस्मे धातुका योग है- नि-यम+क्त = नियुत। २. नियोजनाद्वा अर्थात् नियोजित होने के कारण नियुतः कहलाता है।१०९ इसके अनुसार नि +युज् योगे धातु से यह शब्द निष्पन्न होता है। दोनों निर्वचनों का ध्वन्यात्मक एवं अर्थात्मक आधार उपयुक्त है। भाषा विज्ञानके अनुसार इसे संगत माना जायगा। व्याकरण के अनुसार नि + यम् +क्त कर नियुतः शब्द बनाया जा सकता है। (१२५) अच्छ :- यह एक निपात है। यह अभि के अर्थमें प्रयुक्त होता है। अभि उपसर्ग आभिमुख्य अर्थ का द्योतक है। फलत: अच्छ का अर्थ भी आभिमुख्य ही हआ। आचार्य शाकपूणि: अच्छ का अर्थ करते हैं प्राप्त करना-अच्छ अमेराप्तुमिति शाकपूणि:१०९ अर्थात् शाकपूणि के अनुसार अच्छका अर्थ होता है प्राप्त करनेके लिए। इसके अनुसार आप् प्रापणे धातु से अच्छ माना गया है। यास्क इसका निर्वचन प्रस्तुत नहीं करते मात्र अर्थ प्रदर्शन करते हैं। लगता है शाकपूणि द्वारा प्रदत्त निर्वचनसे ये भी सहमत हैं। आचार्य शाकपूणिका निर्वचन भी ध्वन्यात्मक दृष्टि से पूर्ण संगत नहीं है। इसका अर्थात्मक आधार संगत है। व्याकरणके अनुसार (नी-अ +छो + कः प्रत्यय कर अच्छ: या न अ +छा +क: अच्छम् शब्द बनाया जा सकता है। (१२६)सृणि :- इसका अर्थ होता है अंकुश, हाथी को नियमन करने का लौह अस्त्रानिरुक्तके अनुसार-सृणिरंकुशो भवति सरणात्१० अर्थात्यह हाथियोंके मस्तकपर गमन करता है। इसके अनुसार इस शब्द में सृगतौ धातु का योग है। ध्वन्यात्मक एवं ३२९ : व्युत्पत्ति विज्ञान और आचार्य यास्क
SR No.023115
Book TitleVyutpatti Vigyan Aur Aacharya Yask
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamashish Pandey
PublisherPrabodh Sanskrit Prakashan
Publication Year1999
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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