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________________ उच्चारण में जहां जिह्वा सटती है उस उच्चारण अंग विशेष को तालु कहा जाता है। निरुक्त के अनुसार १- तालु तरते:१०९ अर्थात् यह शब्द तृ प्लवन-संतरणयो: धातुके योग से निष्पन्न होता है। क्योंकि यह अन्य उच्चरणांगों की अपेक्षा विस्तृत होती है१५९ तृ-तर-तल-ताल-तालु। २. लततेर्वा स्यात् लम्व कर्मण: विपरीतात्१०९ अर्थात् यह शब्द लम्ब अर्थ वाला लत् धातुको विपरीत करने पर बना है लत्आद्यन्त विपर्यय-ताल-तालु। इसके अनुसार भी यह अंग अन्य उच्चारणांगों की अपेक्षा विस्तृत है.प्रथम निर्वचन का ध्वन्यात्मक एवं अर्थात्मक आधार उपयुक्त है। भाषा विज्ञानके अनुसार इसे उपयुक्त माना जायगा। द्वितीय निर्वचनमें ध्वन्यात्मकता की कमी है, यद्यपि यह निर्वचन प्रक्रिया के अनुकूल है। व्याकरण के अनुसार तृ प्लवनतरणयोः धातुसे युण प्रत्यय कर तालु शब्द बनाया जा सकता है।१६० तृ + युण् - (रस्य लः) तालु। या तल् प्रतिष्ठायाम् धातुसे कु प्रत्ययं कर तालु शब्द बनाया जा सकता है।१६१ (१२२) सिन्धु :- यह नदीका वाचक है। निरुक्तके अनुसार सिन्धुः स्रवणात्१०९ अर्थात् यह प्रवाहित होता है। इसके अनुसार इस शब्द में सु प्रस्रवणे धातुका योग है। इस निर्वचन का ध्वन्यात्मक एवं अर्थात्मक आधार पूर्ण उपयुक्त नहीं है। यास्क निरुक्तके नवम अध्यायमें सिन्धु शब्द का निर्वचन स्यन्द् धातुसे मानते हैं-सिन्धुः स्यन्दनात्१६२ अर्थात् यह स्यन्दित होता है इसलिए सिन्धु कहलाता है। स्यन्द् प्रस्त्रवणे धातुका योग इस शब्द में स्पष्ट होता है। स्यन्द् धातुसे सिन्धु: शब्द ध्वन्यात्मक एवं अर्थात्मक आधार रखता है। भाषा विज्ञानके अनुसार इसे उपयुक्त माना जायगा। वेद में सिन्धु शब्द नदी वाचक है। लौकिक संस्कृत में यह समुद्र का वाचक हो गया है। इसे अर्थोत्कर्ष कहा जायगा। व्याकरण के अनुसार स्यन्द प्रस्रवणे धातुसे युः प्रत्यय कर सिन्धुः शब्द बनाया जा सकता है।१६३ (१२३) वीरिटम् :- यह अनेकार्थक है। यास्क इसके निर्वचन में अन्य आचार्य - का मत भी उपस्थापित करते हैं। आचार्य तैटीकि के अनुसार यह अन्तरिक्ष का वाचक है। पूर्व वयेरुत्तरमिरते:१०९ अर्थात् वीरिट शब्द में दो पदखण्ड हैं पूर्वार्द्ध वी गतौ धातुसे तथा उत्तरार्द्ध इर् गतौ धातुसे निष्पन्न होता है। वी ईर् + इटन् वीरिटम्। २. वयांसीरन्त्यस्मिन्१०९ अर्थात् इसमें पक्षीगण गमन करते हैं। इसके अनुसार इस शब्द में वि+ईर् गतौ धातु का योग है-(वयस् वि +ईर् +इटन् वीरिटम्।३-भांसिवा१०९ अर्थात् इस अन्तरिक्षमें सूर्यचन्द्रादि प्रकाश गमन करते हैं। इसके अनुसार इस शब्दमें भास् + ३२८: व्युत्पत्ति विज्ञान और आचार्य यास्क
SR No.023115
Book TitleVyutpatti Vigyan Aur Aacharya Yask
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamashish Pandey
PublisherPrabodh Sanskrit Prakashan
Publication Year1999
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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