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________________ में अंस-अंहसः का वाचक है जिसका अर्थ होता है पाप से। त्रै धातुका त्र उत्तर पद में स्थित है। अंहसः त्राणम् =अंसत्रम्। कवच के अर्थ में अंसत्रम् को अंसं त्रायते इति करना ज्यादा संगत होगा। अंहस : त्राणम् से कवच अर्थ में पापादि कर्मो : से बचाने वाला मन्त्र विशेष माना जा सकता है जिसे भी कवच कहा जाता है। लौकिक संस्कृतमें इसका प्रयोग प्रायः नहीं देखा जाता। (१११) कवचम् :- यह वर्मका वाचक है। शरीर की रक्षा करने वाला लौह वस्त्र वर्म कहलाता है। निरुक्तके अनुसार १- कवचं कुअचिंतं भवति१ अर्थात् यह तिर्यक् बना होता है।१४४ शरीर के अनुरूप यह निर्मित होता है। इसके अनुसार इस शब्दमें कु + अञ्च् गतौ धातुका योग है। कु+अञ्च् = कवचम्। २- कांचितं भवति१०९ अर्थात् वह थोड़ा तिर्यक् चढ़ा होता है।१४५ इसके अनुसार इस शब्दमें का +अञ्च धातुका योग है। का ईषत् का वाचक है। का+ अञ्च् = कवचम्। ३. काये अंचितं भवतीति वा१०९ अर्थात् यह शरीर पर लगा रहता है। इसके अनुसार इस शब्द में काये + अञ्च् धातुका योग है। काये शरीरे का वाचक है. काय +अञ्च् कवचम्। प्रथम निर्वचन ध्वन्यात्मक एवं अर्थात्मक दृष्टिकोणसे उपयुक्त है। भाषा विज्ञान के अनुसार इसे उपयुक्त माना जायगा। शेष निर्वचन अर्थात्मक दृष्टिकोणसे महत्त्व रखते हैं। कवच शब्द उक्त अर्थमें लौकिक संस्कृतमें भी प्रयुक्त होता है|१४६ व्याकरणके अनुसार इसे कं +वञ्च गतौ+कः = कवचम् शब्द बनाया जा सकता है। (११२) द्रोणम् :- इसका अर्थ होता है द्रुममय। निरुक्त के अनुसार द्रोणं द्रुममयं भवति१०९ अर्थात् द्रोण द्रुममय होता है। इसके अनुसार द्रुम + मय ही द्रोणम् शब्द बन गया है। यास्क द्रोणका स्वरूप प्रदर्शन करते हैं। इसका ध्वन्यात्मक आधार संगत नहीं है। इसका अर्थात्मक महत्त्व है। काष्ठ के अर्थ में द्रोण शब्द का प्रयोग लौकिक संस्कृत में भी होता है।१४७ व्याकरणके अनुसार द्रु गतौ धातुसे नः प्रत्यय कर द्रोण शब्द बनाया जा सकता है।१४८ ण णत्व का परिणाम है। (११३) आहाव :- इसका अर्थ होता है पशुओं को जल पीने का पात्र विशेष (कुण्ड,नाद आदि)।निरुक्तके अनुसार आहाव आवहनात्१०९अर्थात् आहाव शब्द आहे शब्दे धातुके योगसे निष्पन्न होता है क्योंकि यह पशुओं को जल पीने के लिए आह्वान करता है। यह निर्वचन ध्वन्यात्मक एवं अर्थात्मक दृष्टिकोणसे उपयुक्त है। भाषा विज्ञानके अनुसार इसे संगत माना जायगा। इस शब्दका प्रयोग उक्त अर्थ में लौकिक संस्कृत में भी होता है।१४९व्याकरणके अनुसार आ +ढे धातुसे व प्रत्यय कर आहाद ३२५ व्युत्पत्ति विज्ञान और आचार्य याम्क
SR No.023115
Book TitleVyutpatti Vigyan Aur Aacharya Yask
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamashish Pandey
PublisherPrabodh Sanskrit Prakashan
Publication Year1999
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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