SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 321
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ (१०६) केपय :- इसका अर्थ होता है कुत्सित कर्म । निरुक्तके अनुसार केपयः कपूया भवन्ति! कपूयामिति पुनातिकर्म कुत्सितं दुष्पूयं भवति।१०९ अर्थात् केपय का अर्थ होता है कपूरा। कपूय शब्दका अर्थ होता है कुत्सित या निन्दित कर्म को पवित्र करने वाला। वह दुष्पूय होता है वह कठिनाई से पवित्र किया जाने वाला होता है। इसके अनुसार इस शब्द में कु+ पुञ् धातु का योग है। इस निर्वचन का ध्वन्यात्मक आधार पूर्ण संगत नहीं है। अर्थात्मक आधार इसका उपयुक्त है। लौकिक संस्कृतमें इसका प्रयोग प्राय: नहीं देखा जाता। (१०७) पृथक् :- पृथक्का अर्थ होता है अलग। निरुक्तके अनुसार पृथक् प्रयते:१०९ अर्थात् यह शब्द प्रथ् विस्तारे धातुके योगसे निष्पन्न होता है। इसका ध्वन्यात्मक एवं अर्थात्मक आधार उपयुक्त है भाषा वैज्ञानिक दृष्टि से यह संगत माना जायगा। यास्कीय पद्धति से यह निपात है । व्याकरणके अनुसार इसे अव्यय माना जाता है। लौकिक संस्कृत में इसका प्रयोग बिना तथा अलगके अर्थमें होता है। व्याकरणके अनुसार पृथ् कक् प्रत्यय कर या प्रथ् + अज् प्रत्यय कर पृथक् शब्द बनाया जा सकता है । १४१ (१०८) ईर्म :- यह बाहुका वाचक है। निरुक्तके अनुसार- ईर्म इति बाहुनाम समीरिततरौ भवति१०९ अर्थात् यह अन्य अवयवोंकी अपेक्षा लम्बा होता है। या अधिक कार्यरत होता है। इसके अनुसार ईर्म शब्दमें ईर् गतौ धातुका योग है। इसका ध्वन्यात्मक एवं अर्थात्मक आधार उपयुक्त है। भाषा विज्ञानके अनुसार इसे संगत माना जायगा। ईर्म शब्द विस्तृत अर्थ में चतुर्थ अध्याय में भी प्रयुक्त हुआ है । १४२ व्याकरणके अनुसार ईर् गति प्रेरणयोः धातु से मन् प्रत्यय करे ईर्म शब्द बनाया जा सकता है। लौकिक संस्कृत में ईर्म शब्द व्रण के अर्थ में प्रयुक्त होता है । १४३ वैदिक कालसे लौकिक काल तक इस शब्द में अर्थान्तर हो गया है। (१०९) तूतुमाकृषे :- इसका अर्थ होता है शीघ्र करते हो। निरुक्तके अनुसार तूतुमाकृषे तूर्णमुपाकुरुषे १०९ अर्थात् तूतुमाकृषे क्रिया पद है जिसमें दो पद खण्ड हैं तूतुम् आकृषे । तूतुम् तूर्णम् का वाचक है तथा आकृषे उपाकुरुषे का। इसके अनुसार इसका अर्थ होगा शीघ्र ही सम्पादन करते हो। यह निर्वचन अस्पष्ट है। भाषा विज्ञानके अनुसार इसे पूर्ण नहीं माना जायगा । (११०) अंसत्रम्:- यह धनुष या कवच का वाचक है। इससे प्रहार से रक्षा की जाती है निरुक्त के अनुसार अंसत्रमंहस्त्राणं धनुर्वा कवचं वा । १०९ अर्थात् असंत्रम् शब्द ३२४ व्युत्पत्ति विज्ञान और आचार्य यास्क
SR No.023115
Book TitleVyutpatti Vigyan Aur Aacharya Yask
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamashish Pandey
PublisherPrabodh Sanskrit Prakashan
Publication Year1999
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy