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________________ शब्दमें अज् गतौ धातुका योग है। इसका ध्वन्यात्मक एवं अर्थात्मक आधार उपयुक्त है। भाषा वैज्ञानिक दृष्टिसे इसे उपयुक्त माना जाएगा। अजाः शब्द के निर्वचनमें अजनना: भी निरुक्तमें प्राप्त है इसके अनुसार अ +अज् प्रादुर्भावे धातुका योग माना जाएगा। अजके वकराके अतिरिक्त शंकर, ब्रह्मा, विष्णु, रघुपुत्र, कामदेव आदि कई अर्थ होते हैं।१८० व्याकरणके अनुसार वकरा वाचक अजको अज् गतौ धातुसे अच्१८१ प्रत्यय कर बनाया जा सकता है। ब्रह्मा, विष्णु आदिके अर्थमें न-अ +जन्+ड प्रत्यय कर अजः शब्द बनाया जा सकता है।१८२ ।। (१२१) शरद् :- यह ऋतु वाचक शब्द है। आश्विन कार्तिक महीनेमें शरद् ऋतु होती है। निरुक्तके अनुसार (१) शृता अस्यामोषधयो भवन्ति अर्थात् इस शरद् ऋतु औषधियां (पेड़ पौधे) पक जाती है। इसके अनुसार इस शब्दमें शृ धातुका योग है। (२) शीर्णा आप इतिवा१४४ अर्थात् इस ऋतुमें जल कम हो जाते हैं। इसके अनुसार भी इस शब्दमें शृ धातुका योग है। डा. लक्ष्मण स्वरूपने शीर्णा आपः का अर्थ जलप्लावन से युक्त किया है।१८४ जो पूर्ण उपयुक्त प्रतीत नहीं होता। यास्क के दोनों निर्वचन ध्वन्यात्मक एवं अर्थात्मक दृष्टिकोणसे उपयुक्त हैं। भाषा विज्ञानके अनुसार इसे उपयुक्त माना जाएगा। व्याकरणके अनुसार शृ हिंसायाम् धातुसे अत्८५ प्रत्यय कर शरद् शब्द बनाया जा सकता है। (१२२) भ्राता:- इसका अर्थ होता है भाई। निरुक्तके अनुसास्माता भरतेहरति कर्मणः अर्थात् भ्रातृ शब्द भृञ् हरणे धातु से निष्पन्न होता है क्योंकि वह भाग हरण करता है। हरते गं भर्तव्यो भवतीतिवा४४वह अपना भाग पितृधन का हिस्सा हरण करता है या उस भरण पोषण करना पड़ता है। इसके अनुसार माता शब्दमें मृञ् मरणे धातुका योग है।इसका ध्वन्यात्मक एवं अर्थात्मक आधार उपयुक्त है।यह पूर्णरूप से आख्यातज सिद्धान्त पर आधारित है। यह निर्वचमं सामाजिक दायित्व को भी स्पष्ट करता है। मृ हरणे की उपलब्धि लौकिक संस्कृत में नहीं होती। लौकिक संस्कृतमें हरणार्थक हृ धातुका प्रयोग होता है। मृ धातु हरणार्थक प्राचीन धातु है। इसे वैदिक धातु कहा जाय तो अत्युक्ति नहीं। यास्कके काल में यह भरणार्थक एवं हरणार्थक था। भृ धातु का बादमें अर्थ संकोच हुआ है।यास्क प्रतिपादित दोनों अर्थ आजमी मातृ शब्द में सुरक्षित हैं। व्याकरण के अनुसार भृ भरणे धातुसे तृच् प्रत्यय कर मातृ-माता शब्द बनायाजा सकता है।मातृ शब्द मारोपीय परिवारकी अन्य भाषाओंमें मी किंचित् ध्वन्यन्तस्के २८० : व्युत्पत्ति विज्ञान और आचार्य यास्क
SR No.023115
Book TitleVyutpatti Vigyan Aur Aacharya Yask
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamashish Pandey
PublisherPrabodh Sanskrit Prakashan
Publication Year1999
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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