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________________ होगा धनवत्ता। देवता अर्थ में असुरके निर्वचनसे तीन अर्थ स्पष्ट होते हैं- प्रज्ञावत्ता, प्राणवता एवं वसुमत्ता। इन निर्वचनोंमें असु + र का योग है। ध्वन्यात्मक एवं अर्थात्मक दृष्टिकोणसे यह निर्वचन उपयुक्त है। भाषा विज्ञानके अनुसार इसे संगत माना जाएगा। राक्षसके अर्थमें असुर शब्दके निर्वचनोंमें अ + सु + रम्, अस्-धातु एवं असु+ र का योग पाया जाता है। अ+ सु + रम् = असुर:, अस्- असुरः तथा असु + रः असुरः । इस सभी निर्वचनोंका अर्थात्मक आधार उपयुक्त है। अस् धातुसे अ असु + रः = असुरः ध्वन्यात्मक दृष्टिसे भी उपयुक्त है। असुर शब्द सुरका उलटा नहीं है२८ जो उपर्युक्त निर्वचनोंसे स्पष्ट हो जाता है। (वेदकी प्राचीन ऋचाओंमें) प्रारंभिक अवस्थामें असुर शब्द देवताके अर्थ में प्रयुक्त था तथा इसके अच्छे अर्थ मान्य थे कालान्तर में (वाद की ऋचाओं में) इसके अर्थोंमें भी अपकर्ष हुआ तथा विकृत अर्थ होकर यह सुर विरोधी राक्षसों का वाचक बन गया । अवेस्तामें भी असुर शब्द श्रेष्ठका ही वाचक है। २९ आज कल असुर शब्दका प्रयोग उसके विकृत अर्थमें ही होता है। व्याकरणके अनुसार अस् धातुसे उरन् प्रत्ययकर असुरः शब्द बनायाजा सकताहै। (१५) ऊर्क :- यह अन्न का वाचक है । निरुक्त के अनुसार (१) ऊर्गित्यन्न नाम। ऊर्जयतीतिसत:३१ अर्थात् यह शब्द ऊर्ज् वलप्राणयोः धातुके योगसे निष्पन्न होता है, क्योंकि यह बल एवं प्राणको देने वाला है । ३२ (२) पक्वं वा३१ अर्थात् पक्व शब्दसे ऊर्क हुआ है। पका हुआ अन्न भी बल एवं प्राणको देने वाला होता है। इसके अनुसार इस शब्दमें पच् धातुका योग है । पक्व शब्दके प का लोप, अवशिष्ट क्व का वर्ण विपर्यय व क, व का उ सम्प्रसारणके द्वारा तथा रुक् का आगम होकर पक्वक्व-वक्, ऊ क्, ऊ क्-रुक् = ऊं। (३) सुप्रवृक्णम् इतिवा२१ अर्थात् यह अन्न आसानीसे काटा जाता है इसके अनुसार इस शब्द में व्रश्च्, धातु का योग है। ब्रश्च् के र एवं संयोगादिका लोप व कां उ तथा रुक् का आगम कर एवं कुत्व करने पर ऊर्क शब्द सिद्ध होता है। प्रथम निर्वचन ध्वन्यात्मक एवं अर्थात्मक दृष्टि से उपयुक्त है। भाषा वैज्ञानिक दृष्टिसे इसे उपयुक्त माना जाएगा। द्वितीय एवं तृतीय निर्वचनका ध्वन्यात्मक आधार उपयुक्त नहीं है। भाषा विज्ञानके अनुसार इन्हें पूर्ण उपयुक्त नहीं माना जाएगा। व्याकरणके अनुसार ऊर्ज् बल प्राणयोः + अच् ३३ कर ऊर्ज: ऊर्क बनाया जा सकता है। (१६) निषादः - इसका अर्थ होता है वर्ण विशेष । वर्ण व्यवस्थाके अनुसार चार वर्णोंके अतिरिक्त पंचमवर्ण निषाद कहलाता था। ये पांचों वर्ण एक साथ पंचजन २०४ : व्युत्पत्ति विज्ञान और आचार्य यास्क
SR No.023115
Book TitleVyutpatti Vigyan Aur Aacharya Yask
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamashish Pandey
PublisherPrabodh Sanskrit Prakashan
Publication Year1999
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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