SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 216
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ करता है। इसके आधार पर मनुष्य शब्द में मन् एवं सिंव् धातुका योग है। (२) मनस्यमानेन सृष्टा:२१ अर्थात् वह सोचसमझकर काम करता है। इसके अधार पर मनुष्यय शब्दमें मनु एवं सित् धातु का योग है। (३) मनस्यतिः पुनर्मनस्वी भावे२१ अर्थात् यह प्रहृष्ट मन का होता है। इसके अनुसार मनुष्य शब्द में मन् धातुका योग है। (४) मनोरपत्यं मनुषो वा२१ अर्थात् मनुका अपत्य मानव कहलाया। द्वितीय एवं अन्तिम निर्वचन ऐतिहासिक आधार पर आधारित है। अर्थात्मक दृष्टिसे सभी निर्वचन उपयुक्त हैं। मन् धात्तुसे इसका निर्वचन मानना संगत होगा। व्याकरणके अनुसार मनु यत्-सुक्च२२ मनुष्य बनायाजा सकता है। (१४) असुर :- इसका अर्थ होता है-राक्षस। निरुक्तके अनुसार (१) असुरता: स्थानेषु वार अर्थात् किसी भी स्थान पर अच्छी तरह नहीं ठहरते। इसके अनुसार इसमें अ+सु + रम् धातुका योग है। अ नञर्थ है .२३ सु सुष्टु का वाचक है तथा रम् धातुका अवशिष्ठ र है। (२) अस्ताः स्थानेभ्यः इतिदा२१ अर्थात् वे स्थानोंसे च्युत हैं। देवताओं के द्वारा गिराये गये हैं। इसके अनुसार इसमें अस् क्षेपणे धातुका योग है। (३) स्थानेषु अस्ता:२१ इसके अनुसार भी इसमें अस् धातका योग है। इसका अर्थ द्वितीय निर्वचन के तुल्य है। (४) अषि का असुइति-प्राणनाम अस्तः शरीरे भवति तेन तद्वन्तः अर्थात् असु प्राण वायुका नाम है क्योंकि वह शरीरमें रहता है। इससे वह युक्त है इसलिए असुर कहलाया। शारीरिक बलकी उत्कृष्टताके कारण असुर कहलाया। देवताओं एवं असुरोंके युद्धमें असुरोंका परम सदा वर्णित है। असु+र (तद्वान् अर्थ में र प्रत्ययो असुर। उपर्युक्त निर्वचन राक्ष के अर्थमें प्राप्त होते हैं। असु कुत्सित स्थानका वाचक है। कुत्सित स्थान से असुरों को बनायाअसोरसुरानसृजता इसकी पुष्टि ब्राह्मण नेयोंसे भी हो जाती है। यह ऐतिहासिक आधार रखता है। __असुर शब्द प्राचीन ऋचाओंमें देवताका वाचक प्राप्त होता है।२५ यास्के ने भी इस अर्थ में इसकी व्याख्या प्रस्तुत की है- (१) असुरत्वम् प्रज्ञावत्त्वं वान्नवत्वम्६ वा अर्थात् असुर प्रज्ञावान को कहते हैं या प्राणवान को कहते हैं। असु के दो अर्थ है- प्रज्ञा एवं प्राण (२) आपे वाडसुरिति प्रज्ञा नाम, अस्त्मनान् अस्ताश्चास्यामर्था :२६ असु प्रज्ञा का नाम है क्योंकि वह अनर्थों को दूर करती है या इसमें सभी पदार्थ उपस्थित हो जाते हैं अतः असु + मत्वर्थीय र = असुरः बनाया गया। (३)- वसुरत्वमादिलुप्तम्६ अर्थात् वसुरत्व के आदि अक्षर व का लोप होकर वसुरत्व - असुरत्व हो गया है। इसका अर्थ २०३ : व्युत्पत्ति विज्ञान और आचार्य यास्क
SR No.023115
Book TitleVyutpatti Vigyan Aur Aacharya Yask
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamashish Pandey
PublisherPrabodh Sanskrit Prakashan
Publication Year1999
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy