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है । अहः में ह और र का योग है - हृ - अह् - अहर् - अहः । इसमें धातुका निर्देश उपयुक्त है । अर्थात्मक दृष्टिसे भी यह संगत है। इसका ध्वन्यात्मक आधार शिथिल है | व्याकरणके अनुसार इसे अव्यय माना गया है। इसे अह + अच् प्रत्यय कर बनाया जा सकता है।
(115) उपर या उपल :- यह मेघका वाचक है । निरुक्तके अनुसार उपरमन्तेऽस्मिन् अभ्राणि अर्थात् इसमें अभ्र (वादल) उपरमण करते हैं या मिलते हैं। इसके अनुसार इस शब्दमें उप + रम् धातुका योग है। (2) उपस्ता आपः इतिवा249 अर्थात् इसमें जल उपरत होते है या मिलते है। इसके अनुसारभी इस शब्दमें उप + रम् धातुका योग है। रम् धातुका केवल र ही अवशिष्ट रहा है उप + रम् - र- उपर । र एवं ल में अभेद माननेसे उपर एवं उपल दोनों होगा उपलका निर्वचनमी इसी प्रकार होगा। प्रथम निर्वचन अर्थात्मक एवं ध्वन्यात्मक दृष्टिसे उपयुक्त है । द्वितीय निर्वचनभी भाषा वैज्ञानिक दृष्टिसे संगत है। प्रथम निर्वचनमें अभ्रके मिलनेसे तात्पर्य मेघके पूर्व रूप धूमवत् भाग के मिलनेसे है ।
(116) प्रथम :- यह मुख्यका वाचक है। प्रतमः भवति 249 अर्थात् यह सबसे उत्कृष्टतम होता है। इसके अनुसार इसमें प्र प्रकृष्टका वाचक है तथा तमप् प्रत्ययसे प्रतमः-प्रथमः बना है । भाषा विज्ञानकी दृष्टिसे प्रतमः को प्रथमः मान लेने पर उक्त शब्दमें त का महाप्राणी करणमाना जायगा । भाषा विज्ञानके अनुसार यह उपयुक्त है। प्रथमका अर्थ आदिभी होता है। 25° व्याकरणके अनुसार प्रथ् विस्तारे धातुसे अमच्या प्रत्यय कर बनाया जा सकता है।
(117) अनूपा :- इसका अर्थ होता है अनुगृहीत करने वाले । अनूपकी संख्या निरुक्तके अनुसार तीन है - पर्जन्य, वायु एवं आदित्य । ये तीनों औषधियोंको पकाते है । कई अर्थोमें इसके निर्वचन उपलब्ध होते हैं- अनुवपन्ति. लोकान् स्वेन स्वेन कर्मणा249 अर्थात् ये सभी अपने कर्मोसे लोकों पर अनुग्रह करते है। इसके अनुसार इस शब्दमें अनु + वप् धातुका योग है। अनु + वप् (व-उ–अनु + उप्–अनूप । अनूपका अर्थ जलसे भरा क्षेत्रभी होता है इस अर्थमें भी इसका निर्वचन इसी प्रकार होगा - अनूप्यते उदकेन अर्थात् यह उदकसे युक्त रहता है - अनु + वप् - अनूप । अपि वा अन्वाप् इतिस्यात् 22 अर्थात् जो जलसे घिरा हो। इसके अनुसार इस शब्दमें अनु + आपका योग
१८२ : व्युत्पत्ति विज्ञान और आचार्य यास्क