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________________ आदि व्यंजन लोप है। धातु या पद स्थित मध्य व्यंजनका लोप मध्य व्यंजन लोप कहलाता है। इसके उदाहरणमें यास्क ने वैदिक प्रयोगका प्रदर्शन किया है। तत्त्वायामि५६ पद तत् त्वा याचामि पदोंका समुदाय है। याचामि स्थित च का लोप मध्य व्यंजन लोप है। इसी प्रकार त्रि-ऋचः से निष्पन्न तृच५७ शब्द में त्रि स्थित मध्य र व्यंजन का भी लोप हो गया है। पदस्थ एवं धातुस्थ अन्तिम व्यंजनका लोप अन्त व्यंजन लोप कहलाता है। गम् धातुसे क्त्वा प्रत्ययकरने पर गत्वा तथा क्त प्रत्यय करने पर गतम्५८ शब्द निष्पन्न होते हैं। यहां गम् धातुके अन्त स्थित व्यंजन म् वर्णका लोप हो जाता है। इसी प्रकार कीकट शब्दमें (किम्कृ) किम् स्थित अन्त म् का लोप हो जाता है।५९ अपश्रुति :- कभी-कभी पदोंमें व्यंजन वर्णोंकी यथावत् स्थिति रहने पर भी आन्तरिक स्वर परिवर्तनसे अर्थमें परिवर्तन हो जाता है। यह स्थिति भाषा विज्ञानमें अपश्रुति कही जाती है। अपश्रुतिके लिए स्वर विकार, स्वर वर्णक्रमावस्थान वर्णश्रेणीकरण, सम्प्रसारण आदि शब्दोंका भी प्रयोग किया जा सकता है। अंग्रेजी भाषामें भावल ग्रेडेशन, अन्लाउट आदि शब्द इसके लिए प्रचलित हैं। भरद्वाजसे भारद्वाज, शिव से शैव तथा यस्क से यास्क शब्दोंको उदाहरण स्वरूप देखा जा सकता है। इन पदों में व्यंजन वर्णों की स्थिति यथावत् है तथा आदि स्वरमें परिवर्तन हो गया है। परिणामत: भारद्वाज शब्द भरद्वाजके पुत्रका, शैव शब्द शिवधर्मोपासकका तथा यास्क शब्द यस्क गोत्रापत्य या पुत्र का अर्थ धारण करता है जो प्रकृत अर्थसे भिन्न है। __ अपश्रुति दो प्रकार की होती है- मात्रासम्बद्धा एवं गुणसम्बद्धा।६० मात्रा सम्बद्धा अपश्रुति ह्रस्व दीर्घात्मिकाके नामसे भी अभिहित है। ह्स्व दीर्घ एवंप्लुप्त से सम्बद्ध मात्रा होती है।६१ गुणवृद्धिपरिवर्तन भी स्वर से सम्बद्ध है। मात्रा सम्बन्धी शब्दोंमें परिवर्तन परिमाणात्मक होता है। यह परिवर्तन गुण वृद्धि एवं सम्प्रसारण से सम्बद्ध होता है। स्वरसे उत्पन्न ए, ओ एवं अर् विकारको गुण कहते हैं।६२ इसके प्रदर्शनमें यास्कने शेव शब्दको प्रस्तुत किया है. शेव इतिसुख नाम शिष्यतेर्वकारो नामकरणोऽन्तस्थान्तरोपलिंगी विभाषित गुणः।३शिष् हिंसायाम् धातुसे व प्रत्यय करने पर ष् का लोप तथा विकल्पसे गुण होकर शेव शब्द बनता है अन्यथा शिव ही रहता। गुणीय परिर्वतनके यास्कसम्मत उदाहरण इ-ए एवैः६४इण् धातु,उ औ घोष:६५ धुष्धातु धुष्यते, अर् कर्मन्कृ धातु, कर्म कस्मात् क्रियते इति सतः,अनर्वन्न-अन्+ऋ गतौ। वृद्धिजन्य परिवर्तन में आ,ऐ. १००: व्युत्पत्ति विज्ञान और आचार्य यास्क
SR No.023115
Book TitleVyutpatti Vigyan Aur Aacharya Yask
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamashish Pandey
PublisherPrabodh Sanskrit Prakashan
Publication Year1999
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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