SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 108
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ स्वरयोगसे प्रकट होता है तथा स्वर स्वयं प्रकाशित होता है। स्वर शब्दका प्रथम प्रयोग ऋग्वेदमें प्राप्त होता है। ऐतरेय ब्राह्मणमें स्वरका अर्थ वलाघात या सुर हो गया है । ऐतरेय आरण्यकमें स्वरकेलिए घोष शब्दका प्रयोग हुआ है। ध्वनि परिवर्तन का स्वरूप :- विभिन्न कारणोंसे ध्वनियोंमें परिवर्तन हो जाता है, यह भाषा वैज्ञानिक सत्य है तथा इसे यास्क भी स्वीकार करते हैं। प्राय: एक परिवारकी भाषाओंमें एक भाषासे दूसरी भाषाकी ध्वनियोंमें परिवर्तन लक्षित होता है। एक भाषामें भी समय, स्थान, पात्र एवं स्थितिके आधार पर ध्वनिगत परिवर्तन हो जाता है। भारतीय निरुक्तकारोंने ध्वनि परिवर्तनके कुछ सिद्धान्तोंका प्रतिपादन किया, है ये सिद्धान्त ध्वनिकी परिवर्तित अवस्थाओंके द्योतक हैं। ध्वनि परिवर्तनकी अवस्थाओं में वर्णागम, वर्णविपर्यय, वर्ण विकार, वर्णनाश आदि प्रसिद्ध हैं। इन्हें ही निरुक्तके प्रकार भी कहते हैं। वैयाकरणोंने भी इन्हीं सिद्धान्तोंको स्वीकार किया है। हंस शब्द में स वर्णका आगम, सिंह शब्दमें मूल हिंस् धातुसे निष्पन्न होनेके कारण वर्ण विपर्यय, गूढ़-आत्मासे वर्ण विकारके चलते गूढोत्मा तथा पृषत्उदरम्से त का लोप होकर पृषोदरम् शब्द निष्पन्न होता है पृषोदरमें वर्ण नाश स्पष्ट है।९ ध्वनि परिवर्तन एवं यास्क :- ध्वनिपरिवर्तनका सिद्धान्त निरुक्त एवं भाषा विज्ञानके अनुसार मान्य है । व्याकरण सम्प्रदायमें भी इस सिद्धान्तको स्वीकार किया गया है। ध्वनियां स्वर एवं व्यंजन दो रूपोंमें प्राधान्येन विभाजित हैं। स्वर एवं व्यंजनको वर्ण भी कहा जाता है। विभिन्न प्रकारके वर्णोंके परिवर्तन ही ध्वनि परिवर्तनके अन्तर्गत द्रष्टव्य हैं (१) वर्णागम :- किसी पदमें कोई नयी ध्वनिका आ जाना वर्णागम कहलाता है। इसका भाषावैज्ञानिक प्रधान कारण उच्चारणकी सुविधा है। यास्क शब्दोंके निर्वचन क्रम में ध्वनि परिवर्तनका प्रदर्शन करते हैं। वर्णागम दो प्रकारके होते हैं :- स्वर वर्णागम एवं व्यंजन वर्णागम। स्वर वर्णागम पुनः तीन प्रकारके होंगे : (क) आदिस्वरागम:- किसी शब्दके पूर्व स्वरका आगमहो जाना आदि स्वरागम है। एक भाषा से विकसित दूसरी भाषामें तथा संयुक्त व्यंजनोंसे आरम्भ होने वाले शब्दोंके पूर्व स्वरका आगम देखा जाता है। संयुक्त व्यंजनसे प्रारम्भ होने वाले शब्दोंके उच्चारणमें काठिन्यके चलते स्वरका आगम स्वाभाविक रूपमें हो जाता है। यद्यपि यास्कने आदिस्वरागमका प्रासंगिक उदाहरण निरुक्तमें प्रस्तुत नहीं किया है, तथापि ९५ : व्युत्पत्ति विज्ञान और आचार्य यारक
SR No.023115
Book TitleVyutpatti Vigyan Aur Aacharya Yask
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamashish Pandey
PublisherPrabodh Sanskrit Prakashan
Publication Year1999
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy