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________________ मोह - विजय क्यों आवश्यक ? कामभोग प्राणी के लिये भयंकर दुःखदायी हैं, जैसाकि उत्तराध्ययन सूत्र के बत्तीसवें अध्ययन में कहा है दुक्रवं यं जस्स न होइ मोटो, मोटो हओ जस्स न होइ तण्ा । तण्हा या जस्स न होइ लोटो, लोटो हओ जस्स न किंचणाई || - उत्तरा 32.8 दुःख उसी का नष्ट होता है जिसको मोह नहीं है। मोह उसी का नष्ट होता है जिसके तृष्णा नहीं है। तृष्णा उसी के नहीं होती है जिसके लोभ नहीं है। लोभ उसी के नहीं होता है जो अकिंचन होता है अर्थात् जो अपने को कुछ नहीं मानता, किसी की कुछ भी कामना नहीं रखता वह ही दुःख रहित होता है। . जे यावि दोसं समुवेइ तिव्वं, तसि क्रवणे से उ उवेइ दुक्रवं । दुद्दंतदोस्रेण सएण जंतू, न किचि भावं अवरज्झइ से ।। - उत्तरा.32.90 जो जीव तीव्र द्वेष को प्राप्त होता है, वह अपने ही दुर्दान्त दोष के कारण उसी क्षण दुःख को प्राप्त होता है। इसमें मन के भाव का कुछ भी दोष - अपराध नहीं है। अर्थात् इसके लिए राग- - द्वेष कर्ता व्यक्ति स्वयं उत्तरदायी है। भावाणुवारण परिग्गहेण, उप्पायणे रक्रवण सण्णियोगे । वर वियोगे य कहिं सुहं से, संभोगकाले य अतित्तिलाभे ॥ - उत्तरा 32.93 भावों में आसक्ति एवं ममत्व रखने वाले जीव को भावानुकूल पदार्थ के उत्पन्न करने में, रक्षण में, उपयोग करने में, व्यय में, वियोग में सुख कैसे प्राप्त हो सकता है? कदापि सुख नहीं होता है। उसका उपभोग करते समय भी तृप्ति नहीं होने के कारण दुःख ही होता है । भोगों में 1 सुख कहीं भी नहीं है, सर्वत्र दुःख ही दुःख है I मोस्स पच्छाय पुरत्थओ य, पओगकाले य दुटी दुरंते । एवं अदत्ताणि समाययंतो, भावे अतित्तो दुहिओ अणिस्स ।। - उत्तरा 32.96 असत्य (पर एवं विनाशी) पदार्थ का भोग करने वाला भोग के पहले, पीछे एवं प्रयोग (उपभोग) करते समय दुःखी होता है और उसका अंत भी मोहनीय कर्म 133
SR No.023113
Book TitleBandhtattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhiyalal Lodha
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2010
Total Pages318
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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