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________________ बुरा ही होता है। इस प्रकार भावों से पर पदार्थों या विनाशी वस्तुओं को ग्रहण करता हुआ वह जीव दुःखी तथा आश्रयहीन अर्थात् असहाय होता है । इसके विपरीत विरक्त जीव के शब्दादि विषय मनोज्ञ या अमनोज्ञ नहीं होते विरज्जमाणस्स य इंदियत्था, सद्दाइया तावइयप्पगारा। न तस्स सव्वे वि मणुन्नयं वा, निव्वत्तयंती अमणुन्नयं वा ॥ | - उत्तरा 32.106 शब्दादि जितने भी प्रकार के इन्द्रिय विषय हैं वे सभी उस विरक्त हुए व्यक्ति के मन में मनोज्ञता अथवा अमनोज्ञता का भाव उत्पन्न नहीं करते। एवं ससंकप्पविकप्पणासुं, संजायई, समयमुवट्ठियस्य । अत्थे य संकप्पयओ तओ से, पटीयए कामगुणेसु तण्ा ॥ - उत्तरा 32.107 अपने ही संकल्प एवं विकल्पों में इस प्रकार समता में उपस्थित व्यक्ति कामगुणों की तृष्णा से रहित हो जाता है। मोह के कारण ही ज्ञान - दर्शन गुण पर आवरण आता है और अन्तराय की उत्पत्ति होती है। मोह के कारण जड़ता आती है, यह दर्शन गुण पर आवरण है, दर्शनावरण है। मोह के कारण विवेक का, निज ज्ञान का, अपरिवर्तनशील ज्ञान का प्रभाव नहीं होता, यह ज्ञान पर आवरण है, ज्ञानावरण है। मोह के कारण राग पैदा होता है, राग से संसार के पदार्थों के भोग की इच्छा होती है। भोग की इच्छा से संसार के प्राप्त पदार्थों के प्रति ममता एवं उनके साथ तद्रूपता होती है। इससे प्राणी में संसार के पदार्थों को पाने की, उन पर अपना अधिकार रखने की इच्छा होती है। वह संग्रह करना चाहता है, देना नहीं । देने की भावना अर्थात् उदारता न होना और माँगने की इच्छा होना ही दानान्तराय है । संसार से पाने की, लाभ प्राप्त करने की इच्छा से कामना उत्पन्न होती है, जिससे अभाव का अनुभव होता है। अभाव का अनुभव होना ही लाभान्तराय है। मोह या ममता के कारण जड़ता आ जाने से स्व-संवेदन शक्ति पर आवरण आ जाता है। इससे निज रस के भोग से वंचित हो जाता है- यह भोगान्तराय है । मोह के मोहनीय कर्म 134
SR No.023113
Book TitleBandhtattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhiyalal Lodha
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2010
Total Pages318
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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