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________________ अर्थात् विषय-भोगों के सुखों में आसक्त जीव क्रोध, मान, माया, लोभ, जुगुप्सा, अरति (अरुचि), रति, हर्ष, भय, शोक, पुरुषवेद, स्त्रीवेद, नपुंसकवेद और विविध भावों को प्राप्त होता है। आशय यह है कि प्रत्येक विषय-भोग के साथ अप्रत्यक्ष रूप में समस्त कषाय और नो कषाय जुड़े-बंधे हुए हैं। परन्तु विषय-भोग में प्रवृत्ति या क्रियात्मक रूप में किसी एक कषाय का प्रत्यक्ष उदय होता है और बंध सभी कषायों और नो कषायों का होता है। दर्शन मोहनीय के बंध के हेतुओं का वर्णन करते हुए कहा है"केवलिश्रुतसंघधर्मदेवावर्णवादो दर्शनमोहमय। -तत्त्वार्थ सूत्र अध्याय 6 सूत्र 14 अर्थात केवली, श्रुत, संघ, धर्म और देव का अवर्णवाद दर्शन मोहनीय कर्म के बंध का हेतु है। 'दर्शन' का अर्थ है निर्विकल्पता। निर्विकल्पता दो प्रकार की होती ___ 1. स्व-संवेदन एवं चिन्मयता रूप अनुभव । इसमें भी विकल्प नहीं होता है। इस दर्शन का सम्बन्ध दर्शनावरण कर्म में आए 'दर्शन' से है। जिसका विशेष विवेचन पूर्व में दर्शनावरण कर्म की व्याख्या में कर दिया गया है। 2. श्रद्धा, आस्था, विश्वास रूप दर्शन । इसमें श्रद्धा का अर्थ है विकल्प रहित विश्वास अर्थात् पूर्ण आस्था । श्रद्धा में विकल्प रहित (निर्विकल्प) स्थिति होती है, उसमें संदेह, तर्क, विकल्प, ऊहापोह आदि नहीं होते। उपर्युक्त श्रुत, संघ, धर्म आदि श्रद्धा के विषय हैं। इनका अवर्णवाद है इनके स्वरूप के प्रति सन्देह व विकल्प होना। यह तभी होता है जब इनके विपरीत छद्मस्थ, कुश्रुत, बाल जीवों का संग, अधर्म (दुराचरण) और भोगी देवों से सुख-प्राप्ति का विश्वास हो, आस्था हो, मोह हो । इनसे सुख-प्राप्ति का विश्वास, आस्था व मान्यता मिथ्या है। यह मिथ्या मान्यता ही दर्शन मोहनीय है। दर्शन मोहनीय की उत्पत्ति व उसका बंध तभी होता है जब अविनाशी अरिहंत-सिद्ध वीतराग देव, स्वभाव रूप धर्म, विवेक रूप श्रुत ज्ञान और त्यागी संघ पर श्रद्धा-आस्था न कर अविश्वसनीय, नश्वर, असत्, शरीर, संसार, विषय-कषाय जन्य सुखों में आस्था, विश्वास तथा श्रद्धा की जाय। यह मिथ्यात्व ही दर्शनमोहनीय के बंध का हेतु है। 132 मोहनीय कर्म
SR No.023113
Book TitleBandhtattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhiyalal Lodha
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2010
Total Pages318
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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