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________________ का पहले जितना स्थिति बंध एवं अनुभाग बंध हो रहा था उससे कम स्थिति का और कम अनुभाग का बंध होता है तथा सत्ता में स्थित मोहनीय कर्म की प्रकृतियों की स्थिति का अपवर्तन (कमी) और अनुभाग का अपकर्षण (कमी) होता है। यद्यपि इस प्रकार के बंध में भी मोहनीय कर्म की प्रायः सभी प्रकृतियों का बंध होता है, लेकिन वह उनके स्थिति व अनुभाग के बंध में कमी का और सत्ता में स्थित प्रकृतियों की स्थिति के अपवर्तन (कमी) एवं अनुभाग में अपकर्षण का हेतु होता है। इस कारण से कषाय की मंदता को मोहनीय कर्म के बंध के हेतुओं मे नहीं गिनाया गया है। दूसरे प्रकार का बंध वह है जो उदयमान (विद्यमान) कषाय के तीव्र होने से होता है। इस प्रकार के बंध में मोहनीय कर्म की बध्यमान प्रकृतियों का पहले जितना स्थिति बंध व अनुभाग बंध हो रहा था उससे स्थिति और अनुभाग बंध अधिक होता है तथा सत्ता में स्थित प्रकृतियों की स्थिति का उदवर्तन (वृद्धि) और अनुभाग का उत्कर्षण (वृद्धि) होता है। इस प्रकार कषाय की तीव्रता मोहनीय कर्म की बध्यमान एवं सत्ता में स्थित प्रकृतियों के स्थिति बंध और अनुभाग बंध में वृद्धि का कारण होने से कषाय की तीव्रता को ही मोहनीय कर्म के बंध के हेतुओं में स्थान दिया गया है। तत्त्वार्थ सूत्र में चारित्र मोहनीय और दर्शन मोहनीय के बंध हेतुओं के सूत्र अलग-अलग दिए हैं। चारित्र मोहनीय के बंध हेतुओं का वर्णन करते हुए कहा हैकषायोदयात्तीव्रात्मपरिणामश्चावित्रमोट्रय। -तत्त्वार्थ सूत्र, अ. 6 सूत्र 15 अर्थात् कषाय से होने वाला तीव्र आत्म-परिणाम चारित्र मोहनीय कर्म बंध का हेतु है। इस सूत्र में आए तीव्र शब्द के प्रयोग का कारण ऊपर बता आए हैं। यहाँ चारित्र मोहनीय बंध के हेतुओं पर विशेष प्रकाश डाल रहे हैं कषाय ही समस्त पाप-कर्म-प्रकृतियों के स्थिति और अनुभाग (फल) बंध के हेतु हैं और कषाय की उत्पत्ति के हेतु हैं- विषय-सुखों का भोग, उनकी दासता तथा प्रलोभन। जैसा कि उत्तराध्ययन सूत्र में कहा है कोठंच माणंच तदेव मायं, लोठं दुगुच्छं अरइंच। लगं भय प्रोग-पुमित्थिवेयं, णपुंसवेयं विविठे य भावे।। -उत्तराध्ययन अध्ययन 32, गाथा 102 मोहनीय कर्म 131
SR No.023113
Book TitleBandhtattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhiyalal Lodha
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2010
Total Pages318
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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