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अर्थात् यद्यपि तीर्थंकर श्रावकों और मुनियों को उपदेश देते हैं तो भी उनके कर्मबंध नहीं होता है, क्योंकि जिनदेव के तेरहवें गुणस्थान में कर्म-बंध के कारणभूत मिथ्यात्व, असंयम और कषाय का अभाव हो जाने से वेदनीय कर्म को छोड़कर शेष समस्त कर्मों का बंध नहीं होता है। वेदनीय कर्म का बंध होता हुआ भी उसमें स्थिति बंध और अनुभाग बंध नहीं होता है, क्योंकि वहाँ पर स्थिति बंध और अनुभाग बंध के कारणभूत कषाय का अभाव है। यद्यपि वहाँ पर तेरहवें गुणस्थान में योग है, फिर भी प्रकृति बंध तथा प्रदेशबंध के अस्तित्व का कथन नहीं किया जा सकता है, क्योंकि स्थिति बंध के बिना उदयरूप से आने वाले निषेकों में उपचार से बंध के व्यवहार का कथन किया गया है। जिनदेव देशव्रती श्रावकों और सकलव्रती मुनियों को धर्म का उपदेश करते हैं, इसलिए उनके अर्जित कर्मों का संचय बना रहता है सो भी बात नहीं है, क्योंकि उनके जिन नवीन कर्मो का अर्जन होता है वे उदय रूप ही हैं उनसे भी असंख्यात गुणी श्रेणी रूप से वे प्रतिसमय पूर्व संचित कर्मों की निर्जरा करते हैं। इसलिए उनके कर्मों का संचय नहीं बन सकता है।
वीरसेनाचार्य के उपर्युक्त कथन से यह परिणाम निकलता है कि कषाय के उदय, क्षय व क्षयोपशम से क्रमशः कर्म का बंध, क्षय व क्षयोपशम होता है। कर्मसिद्धान्त में कषाय में कमी होने को विशुद्धि व कषाय में वृद्धि को संक्लेश कहा है। साथ ही विशुद्धि से कर्म की स्थिति का घात बताया है जो कर्म के अपवर्तन या निर्जरा का द्योतक है तथा संक्लेश से कर्म की स्थिति की वृद्धि कही है जो कर्म-बंध के उद्वर्तन का द्योतक है, जैसाकि तत्त्वार्थसूत्र अध्ययन 10 की टीका में आचार्य अकलंक व पूज्यपाद ने कहा है कि विशुद्धि से प्रीति का उदय, उपेक्षाभाव की जागृति तथा अज्ञान का नाश होता है। ये तीनों ही मुक्ति में सहायक हैं अर्थात् विशुद्धि रूप शुभभाव मुक्ति-प्राप्ति में हेतु है। ____ कर्म-सिद्धान्त का यह नियम है कि कषाय की वृद्धि से पूर्व संचित समस्त पाप प्रकृतियों की स्थिति व अनुभाग में वृद्धि होती है तथा कषाय की कमी से स्थिति व अनुभाग में कमी होती है। निष्कर्ष यह है कि कर्मों का बंध, सत्ता, उद्वर्तन (वृद्धि), अपवर्तन (कमी), क्षय आदि कर्मों की समस्त स्थितियाँ कषाय पर ही निर्भर करती हैं। कहा भी है- “कषायमुक्तिः किल मुक्तिरेव' अर्थात् कषाय मुक्ति ही वास्तविक मुक्ति है।
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प्राक्कथन