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कर्म सिद्धान्त का यह नियम है कि प्रवृत्ति के बिना कर्मों या दलिकों का अर्जन नहीं हो सकता और कर्मों का अर्जन ही नहीं हो तो बंध किसका होगा। अतः योगों के अभाव में बंध का अभाव होगा। इस प्रकार कर्म - बंध की मौलिक सामग्री का निर्माण योगों से होता है। परन्तु कर्म दलिकों (प्रदेशों) का अर्जन होना और उसका बंध होना ये दोनों एक बात नहीं है। वीतराग केवली के योगों की प्रवृत्ति है, अतः कर्म-दलिकों का अर्जन तो होता ही रहता है, परन्तु कर्म-बंध नहीं होता है।
विश्व में कर्म-वर्गणा सर्वत्र विद्यमान है और आत्माएँ भी सर्वत्र विद्यमान हैं अर्थात् जहाँ कर्म वर्गणा विद्यमान है वहाँ आत्मा भी विद्यमान है, फिर भी उन कर्म वर्गणाओं का आत्मा के साथ बंध नहीं होता है, क्योंकि उनका आत्मा के साथ संबंध स्थापित नहीं हुआ है। कर्मों का आत्मा के साथ स्थापित या स्थित होना ही कर्म-बंध है और ये कर्म जितने काल तक स्थित रहेंगे वह ही स्थिति बंध है। इस प्रकार आत्मा के साथ कर्मों का स्थित होना और स्थिति बंध का घनिष्ठ संबंध है और स्थिति बंध होता है कषाय से। इस दृष्टि से कर्म-बंध का प्रधान कारण कषाय है। "गोयमा? चउटिं ठाणेटिं अट्ठ कम्म पयडिओ बंधमु, बंधति, बंधिस्यति तंजलकोटेणं,माणेणंमायाए, लोभेणं।दं.1-24 एवंनेरइया जाववेमाणिया।"
___-पन्नवणा पद 14, द्रव्यानुयोग पृष्ठ 1093 हे गौतम! जीवों ने चार कारणों से आठ कर्म प्रकृतियों का बंध किया है, करते हैं और करेंगे, यथा क्रोध से, मान से, माया से और लोभ से। इसी प्रकार नैरयिकों से लेकर वैमानिकों तक 24 दण्डकों में जानना चाहिये।
वस्तुतः कषाय ही बंध का कारण है, योग नहीं। योग से केवल कर्मों के दलिकों (प्रदेशों) का अर्जन होता है, बंध नहीं। क्योंकि जिन कर्मों का स्थिति बंध नहीं होता उनका न प्रकृति बंध होता है, न प्रदेश-बंध और न अनुभाग बंध । ये तीनों प्रकार के बंध स्थिति बंध होने पर ही संभव हैं।
यह नियम है कि कर्म जितने काल तक आत्मा में स्थित रहते हैं तब तक ही आत्मा कर्मों से बंधी रहती है या कर्म आत्मा से बंधे रहते हैं। कर्मों का आत्मा के साथ बंधे रहना ही स्थिति बंध है। कर्मों का आत्मा में स्थित न रहना, आत्मा से अलग हटना ही कर्म का मिटना है- कर्म का क्षय है।
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प्राक्कथन