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रहना ‘सत्ता', बाहर में प्रकट होना 'उदय' तथा निमित्त विशेष से सुप्त संस्कारों का प्रकट होना अर्थात् उदय में आने के लिये गतिशील होना, उदीरणा है।
जो संस्कार या कर्म उदय हुआ है, स्थिति या परिस्थिति के रूप में प्रकट हुआ है, वह प्रतिक्षण क्षीण तथा नष्ट होता है और उसके स्थान पर अगले ही क्षण नया संस्कार उदय में आ जाता है। भले ही हम इस सच्चाई से परिचित हों या नहीं हों और हमें यह लगे कि पूर्व वाली स्थिति में कोई परिवर्तन नहीं हुआ है, वह ज्यों का त्यों है, परन्तु यह भ्रान्ति है। इसे समझने हेतु हम दीपक की लौ को लें। लौ हमें एक-सी दिखाई देती है, परन्तु वह लौ प्रतिक्षण नष्ट हो रही है और उसके स्थान पर नयी लौ आ रही है। यदि ऐसा न होता, तो दीपक में भरा तेल कम क्यों होता। प्रतिक्षण नई लौ पैदा करने में तेल का उपयोग हो रहा है। परन्तु यह सब कार्य बड़ी द्रुतगति से हो रहा है तथा पूर्ववर्ती और पश्चात्वर्ती लौ में इतनी अधिक समानता है कि हमें ऐसा भ्रम होता है कि अभी भी वही लौ है, जो हमने पहले जलती हुई लौ देखी थी। इसी प्रकार उदित कर्म प्रतिक्षण क्षीण होता है, इसकी स्थिति-अवस्था (पर्याय) प्रतिक्षण परिवर्तित होती है, उसके स्थान पर नवीन अवस्था उदित हो रही है, फिर भी हमें पता नहीं चलता
है।
ऊपर जो भी घटनापरक उदाहरण प्रस्तुत किये गये हैं, वे कर्म के स्थूलतम रूप के द्योतक मात्र हैं, केवल समझने के लिये संकेत मात्र हैं। वस्तुतः कर्म का वास्तविक स्वरूप बड़ा गहन है। उसे अंतर्मुखी होकर अन्तर की गहराई में पैठकर अनुभव करने से ही सही रूप में समझा जा सकता है।
कर्म-बंध का मुख्य कारण कषाय है, योग नहीं जैन-दर्शन में योग और कषाय ये दो कर्म-बंध के कारण कहे गये हैं। योग से कर्मों का प्रकृति और प्रदेश बंध होता है तथा कषाय से स्थिति और अनुभाग बंध होता है, ऐसा कहा गया है, सो यथार्थ ही है। कारण कि योगों की प्रवृत्ति से कर्मों की रचना (सर्जन) और कषाय से कर्मों का बंध होता है।
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प्राक्कथन