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________________ मोहजन्य ज्ञान है । जो मोहजन्य ज्ञान है, वह ज्ञान ज्ञानावरणीय कर्म के क्षयोपशम का परिणाम नहीं है। प्रत्युत ज्ञानावरणीय कर्म के उदय का द्योतक है। यह हानिकारक, विकारोत्पादक होने से अज्ञान रूप है। किसी आदमी की दृष्टि कमजोर हो जाना - जैसा कि वृद्धावस्था में प्रायः हो जाता है, तो वह ज्ञानावरणीय-दर्शनावरणीय कर्म के उदय का फल नहीं है, क्योंकि वह मोह की वृद्धि से नहीं होती है। चश्मा लगाते ही दिखने लग जाना, पुस्तक पढ़ने में आना, ये ज्ञानावरणीय कर्म के क्षयोपशम का फल नहीं हो सकते, क्योंकि ये चश्मे जैसे जड़ पदार्थ पर निर्भर हैं । चेतना का गुण जड़ पदार्थ से न्यूनाधिक नहीं हो सकता । वह न्यूनाधिक होता है, मोहनीय या विकारों के बढ़ने व घटने से । इसलिए लौकिक ज्ञान कितना ही न्यून या अधिक हो, उससे ज्ञानावरणीय कर्म की अधिकता व न्यूनता का सम्बन्ध नहीं है। सत्-असत् उत्पाद - व्यय - ध्रौव्य आदि स्वभाव से सम्बन्धित ज्ञान का प्रभाव होना ही ज्ञानावरणीय कर्म के क्षयोपशम से संबंधित है । स्वभाव के ज्ञान के प्रभाव की अधिकता ही ज्ञानावरणीय कर्म के क्षयोपशम की द्योतक है। उसी से संवदेनशीलता बढ़ती है। ज्ञान के आदर से मोह घटता है जिससे दर्शन गुण का विकास व क्षयोपशम होता है । इस दृष्टि से ज्ञान को दर्शन से प्रथम कहा है तथा दर्शन के पश्चात् ज्ञान होता है, इस दृष्टि से दर्शन को पहले कहा है । किसी करण या उपकरण के घटने-बढ़ने या अभाव से, उसका उपयोग न करने से कर्त्ता की शक्ति में कोई कमी - वृद्धि नहीं होती है। आँख, कान आदि के कमजोर या बलवान होने से, अधिक-कम दिखने-सुनने से ज्ञानावरणीय - दर्शनावरणीय कर्म में कोई अन्तर नहीं पड़ता है । अन्तर पड़ता है, मोहनीय कर्म के घटने-बढ़ने से । किसी को आँख खोलते ही बगीचे में हजारों वृक्ष दिखे, थोड़ा आगे बढ़ते ही कोई वृक्ष नहीं दिखा। इस प्रकार अधिक वृक्ष दिखने से या वृक्ष नहीं दिखने से चक्षु इन्द्रिय की शक्ति व ज्ञान गुण में कोई वृद्धि -हास नहीं हो जाता है। ज्ञान के अनुरूप आचरण करना ज्ञान का आदर है। जैसे अनित्यतानश्वरता तथा पराधीनता किसी को स्वभाव से पसंद नहीं है। अंतः अनित्य पदार्थ से, पर से अपना सम्बन्ध-विच्छेद करना, उसकी दासता छोड़ना, उससे मिलने वाले सुख का त्याग करना अर्थात् ज्ञान के अनुरूप चारित्र ज्ञानावरण कर्म 58
SR No.023113
Book TitleBandhtattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhiyalal Lodha
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2010
Total Pages318
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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