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________________ होती है। जो सभी को सदा सर्वथा इष्ट है, उसका ज्ञान स्वाभाविक व निज ज्ञान है। जैसे अमरत्व (अविनाशी) शान्ति, मुक्ति (स्वाधीनता), प्रीति (प्रेम), रस(सुख), पूर्णता, चिन्मयता आदि का इष्ट होना निज ज्ञान है, क्योंकि ये जीव के स्वभाव हैं, सभी को सदा इष्ट हैं। यह ज्ञान किसी से सीखा हुआ नहीं है। स्वभाव, स्वभाव का ज्ञान किसी की भी देन नहीं होता है। स्वभाव का ज्ञान भी स्वाभाविक है। स्वाभाविक ज्ञान ही निजज्ञान है। यह आत्मा का निज गुण है। किसी से प्राप्त नहीं है। इस ज्ञान का प्रभाव न होना ही ज्ञानावरण कर्म है। आदर का अर्थ आचरण करना है- जैसा कि कहा है"जाण्या पण आदरया नहीं जी।" अतः स्वाभाविक ज्ञान के अनुरूप आचरण करना ही ज्ञान का आदर है और ज्ञान के विपरीत आचरण करना, उपेक्षा करना, उसे भविष्य के लिए टाल देना, ज्ञान का अनादर है। स्वाभाविक ज्ञान ही स्व-पर, सत्-असत्, विनाशी-अविनाशी, उत्पाद-व्यय का ज्ञान है। इसका आदर है- पर से, असत् से, विनाशी से, व्यय से अपना सम्बन्ध विच्छेद करना, इनकी आसक्ति का, असंयम का त्याग करना। इसके आदर से स्व, सत्, अमरत्व की अभिव्यक्ति या बोध स्वतः होता है। यह बोध ही पूर्ण ज्ञान है, केवलज्ञान है। यह नियम है कि ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय और अन्तराय, इन तीनों घाती कर्मों का क्षयोपशम मोहनीय कर्म की न्यूनाधिकता पर निर्भर करता है। मोहनीय कर्म की कमी से जड़ता, मूर्छा घटती है, जिससे दर्शनावरणीय कर्म का क्षयोपशम होता है अर्थात् संवेदन-शक्ति, चिन्मयता बढ़ती है जिसके साथ ज्ञानावरणीय कर्म के क्षयोपशम से ज्ञान गुण बढ़ता है। यह नियम है कि दर्शन और ज्ञान, ये दोनों गुण एक साथ बढ़ते, घटते व क्षय होते हैं। संवेदन शक्ति के बढ़ने से इन्द्रिय-शक्ति का विकास होता है, जिससे दर्शन और ज्ञान गुण की अभिव्यक्ति के माध्यम रूप द्रव्य इन्द्रियों की प्राप्त होती है। द्रव्येन्द्रियों की शक्ति घटने-बढ़ने से, ज्ञान गुण का उपयोग घटने-बढ़ने से, इन्द्रियों के ज्ञान की उपयोगिता का विस्तार होने या कमी होने से ज्ञान गुण घट-बढ़ नहीं जाता। जितना भी लौकिक ज्ञान है, वह इन्द्रिय ज्ञान से सम्बन्धित है। आधुनिक विज्ञान का विकास इन्द्रियों के भोग कैसे किए जायें, वस्तुओं का इन्द्रिय-भोग में उपयोग कैसे किया जाय, इस ज्ञान के उपयोग का विस्तार है। यह सब लौकिक ज्ञान है ज्ञानावरण कर्म
SR No.023113
Book TitleBandhtattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhiyalal Lodha
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2010
Total Pages318
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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