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________________ [ ४२८] रसार्णवसुधाकरः प्रयुक्त हुआ है- ऐसा कहना चाहिए।।२११उ.-२१७पू.।। (नाटकेऽङ्कनियमः) नाटकेऽङ्का न कर्तव्याः पञ्चन्यूना दशाधिकाः ।। २१७।। तदीदृशगुणोपेतं नाटकं भुक्तिमुक्तिदम् । नाटक में अङ्क का विधान- नाटक में पाँच से कम और दश से अधिक अङ्क नहीं करना (बनाना) चाहिए।।२१७उ.।। उपर्युक्त गुणों से युक्त नाटक भोग और मोक्ष दोनों को देने वाला होता है।।२१८पू.॥ जैसा कि भरत ने कहा है तथा च भरत: धर्मार्थसाधनं नाट्यं सर्वदुःखापनोदकृत् । आसेवध्वं तदृषयस्तस्योत्थानं तु नाटकम् ।।इति।। “नाटक धर्म और अर्थ को प्राप्त करने का साधन है तथा सभी दुःखों को समाप्त (दूर) करने वाला है। इसीलिए ऋषिगण उसका सेवन करते हैं। नाटक उस (नाट्य) का उत्थान है। (नाटकस्य पूर्णादिभेदाननङ्गीकारः) नाटकस्य तु पूर्णादिभेदाः केचन कल्पिताः ।। २१८।। तेषां नातीव रम्यत्वादपरीक्षाक्षमत्वतः । मुनिनानादृतत्वाच्च नानुद्देष्टुमुदास्महे ।।२१९।। नाटक के पूर्ण इत्यादि भेदों की अस्वीकृति- कुछ आचार्य नाटक के पूर्ण इत्यादि भेदों की कल्पना करते हैं। उन (कल्पनाओं) के रमणीय न होने तथा परीक्षा में असमर्थ होने और मुनि (भरत) द्वारा समादृत न होने के कारण उसका निरूपण करने के प्रति हम उदासीन है।।२१८उ.२१९पू.॥ अथ प्रकरणम् यत्रेतिवृत्तमुत्पाद्यं धीरशान्तश्च नायकः । रसः प्रधानं शृङ्गारः शेषं नाटकवद् भवेत् ।। २२०।। (२) प्रकरण- जहाँ कथावस्तु (कवि द्वारा) उत्पादित (कल्पित) होती है, नायक धीरप्रशान्त होता है, प्रधान (अङ्गी) रस शृङ्गार होता है, तथा शेष लक्षण नाटक के समान होते हैं, वह प्रकरण कहलाता है।।२२०॥ (प्रकरणभेदाः) तत्तु प्रकरणं शुद्धं धूर्त मिश्रं च तत् त्रिधा ।
SR No.023110
Book TitleRasarnavsudhakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJamuna Pathak
PublisherChaukhambha Sanskrit Series
Publication Year2004
Total Pages534
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size31 MB
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