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________________ [ ४१२] रसार्णवसुधाकरः ... जैसे वीरभद्रजृम्भण में- - • तुम नाट्याचार्य हो और तुम जैसों की कृपा से यह गीत के परिश्रम का विधान कैसा? फिर भी आश्चर्य है कि आज यह कण्ठ में परिवर्तन हो गया है। समझ गया, समझ गया कि भावगर्भित वचन से मेरा परिहास कर रहे हो। किन्तु (मुझे) ऐसा नहीं कहना चाहिए क्योंकि तुम गुरु हो, इस विषय में चेष्टि (अङ्गभङ्गिमा) प्रमाण है।।625 ।। . यहाँ नट और सूत्रधार का परस्पर एक दूसरे का अयथार्थ संस्तव का हास्य के लिए प्रवृत्त होने से प्रपञ्च है। अथ त्रिगतम् श्रुतिसाम्यादनेकार्थयोजनं त्रिगतं भवेत् ।।१७४।। (४) त्रिगत- शब्द की समानता के कारण अनेक अर्थों की योजना (कल्पना) करना त्रिगत कहलाता है।।१७४उ.॥ यथाभिरामराघवे'पारिपार्श्विकः' वाणीमुरजक्वणितं श्रुतिसुभगं किं सुधामुचः स्तनितम्। ... जलदस्य किमाज्ञातं तव मधुरगभीरवग्विलासोऽयम् ।।626 ।। अत्र सूत्रधारवाग्विलासे मुरजजलदध्वनिवितर्कसम्भावनात् त्रिगतम्। जैसे अभिरामराघव मेंपारिपार्श्विक मृदङ्ग की ध्वनियुक्त कानों के लिए रमणीय यह वाणी क्या है? क्या यह अमृत वर्षा करने वाले बादल की गर्जना है। समझ गया यह मधुर और गम्भीर वाग्विलास है।।626।। यहाँ सूत्रधार के वाग्विलास में मृदङ्ग और बादल की ध्वनि में वितर्क से उत्पन्न होने से त्रिगत है। अथ छलम् प्रोक्तं छलं ससोत्प्रासैः प्रियाभासैर्विलोभनम् । (५) छल- ऊपर से प्रिय लगने वाले किन्तु अप्रिय वाक्यों द्वारा लुभा लेना छल कहलाता है।।१७५पू.।। यथाभिरामराघवे विद्वानसौ कलावानपि रसिको बहुविधप्रयोगज्ञः । इति च भवन्तं विद्मो नियूढं साधु तत् त्वया सर्वम् ।।627 ।। अत्र विपरीतलक्षणया प्रहेलिकार्थमजानतः पारिपार्थिकस्योपालम्भनाच्छलम्।
SR No.023110
Book TitleRasarnavsudhakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJamuna Pathak
PublisherChaukhambha Sanskrit Series
Publication Year2004
Total Pages534
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size31 MB
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