________________
तृतीयो विलासः
[४११]
क्रान्तदर्शी कवियों की दृष्टि सारस्वत (सरस्वती से सम्बन्धित) होती है जो नियतार्थ वस्तुओं के प्रति आधिक्य होकर प्रवर्तित होती है।।623 ।।
यहाँ 'कवियों की सारस्वत दृष्टि' इस प्रकार कवि सामान्य के वर्णन से स्वाभिलषित कवि-विशेष के उत्कर्ष के संसाधन रूप से प्रकृतार्थ का कथन होने से अवलगित है।
अन्यप्रसङ्गेन प्रकृतस्य सिद्धिर्यथानघराघवे. सूत्रधारः- मारिष! स्थाने खलु भवतः कुतूहलम्। दिशमेवेतत्।
तत्तादृगुज्ज्वलककुत्स्थकुलप्रशस्तिसौरभ्यनिर्भरगभीरमनोहराणि । वाल्मीकिवागमृतकूपनिपानलक्ष्मी
मेतानि बिभ्रति मुरारिकवेर्वचांसि ।।(1.12)624।।
अत्राप्रकृतवाल्मीकिवर्णनप्रसङ्गेन प्रकृतमारिषकुतूहलोत्कर्षसंसाधनरूपात् प्रकृतनाट्यावलगनादिदं द्वितीयमवलगितम्।
अन्य प्रसङ्ग से प्रकृति की सिद्धि जैसे अनर्थराघव मेंसूत्रधार- हे मारिष! आप का कुतूहल ठीक ही है। यह ऐसा ही है
उन अवर्णनीय काकुत्स्थकुल की प्रशंसा से सुरभित गम्भीर तथा मनोहर मुरारि की कविताएँ वाल्मीकि के वचनरूप अमृत के लिए कूप-निपान की शोभा धारण करती हैं।(1.12)11624।।
यहाँ अप्राकृत वाल्मीकि-वर्णन के प्रसङ्ग में प्रकृत मारिष के कौतूहल के उत्कर्ष-संसाधन रूप प्रकृत नाट्य का कथन होने से यह द्वितीय अवलगित (अन्य प्रसङ्ग से प्रकृत की सिद्धि) है।
अथ प्रपञ्चः
प्रपञ्चस्तु मिथःस्तोत्रमसबूतं च हास्यकृत् । (३) प्रपञ्च- प्रपञ्च परस्पर हास्यकृत् संस्तवन से उत्पन्न होता है।।१७४पू.॥
विमर्श-निन्दनीय (परदाराभिगमन) आदि की निपुणता से की गयी जो एक दूसरे की स्तुति का हास्य है, वही प्रपञ्च कहलाता है।
यथा वीरभद्रविजृम्भणे- -
नाट्याचार्यस्त्वमसि सुहृदां त्वादृशानां प्रसादात् कोऽयं गीतश्रमविधिरहो भिन्नकण्ठोऽद्य जातः । ज्ञातं ज्ञातं परिहससि मां भाषितैर्भावगर्भ
मैवं वाच्यं त्वमसि हि गुरुस्तत्र चेष्टिः प्रमाणम् ।।625 ।। अत्र नटसूत्रमारपोरयथार्थस्यान्योऽन्यस्तोत्रस्य हास्यायव प्रवृत्तत्वात् प्रपः।