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________________ तृतीयो विलासः विरोध करने वाले माढव्य द्वारा हतोत्साह कर दिया गया हूँ। सेनापति — (विदूषक के प्रति ) हे मित्र! अपनी प्रतिज्ञा पर स्थिर रहो । तब तक मैं महाराज की चित्तवृत्ति का अनुवर्तन कर रहा हूँ। (प्रकट रूप से) यह मूर्ख बकता रहे । इस विषय में आप स्वामी ही प्रमाण है [ ३७९ ] ( शिकार खेलने से ) चर्बी कम होने से पतले उदर वाला शरीर हल्का और उद्योग (परिश्रम) करने योग्य हो जाता है। प्राणियों (जीवों) के भय और क्रोध की अवस्थाओं में (उनके) विकारयुक्त (क्षुब्ध) मन (चित्त) का भी ज्ञान हो जाता है । धनुर्धारियों के लिए यह गौरव का विषय है कि चलते-फिरते लक्ष्य पर भी (उनके) बाण सफल होते हैं। लोग शिकार खेलने को व्यर्थ में ही दुर्गुण कहते हैं, इस प्रकार का मनोरञ्जन (अन्यत्र ) कहाँ हो सकता है । । (2.5 ) ।।581।। अत्र सेनापतेः राजचित्तानुवर्तनं दाक्षिण्यम् । यहाँ सेनापति का राजा के चित्त का अनुवर्तन दाक्षिण्य है। अथार्थापत्ति: उक्तार्थानुपपत्यान्यो यस्मिन्नर्थः प्रकल्प्यते । वाक्यमाधुर्यसंयुक्ता सार्थापत्तिरुदीरिता । । १०९ ।। (१३) अर्थापत्ति- कहे गये अर्थ को उपपत्ति (प्रमाणपूर्वक) वाक्य की मधुरता से सम्पन्न अन्य अर्थ की कल्पना करना अर्थापत्ति कहलाता है ।। १०९उ. ।। यथा रत्नावल्याम् विदूषकः - भोः एसा क्खु अपुव्वा सिरि तुए समासादिदा (भोः एषा खलु त्वया अपूर्वा श्रीः समासादिता) । राजा- वयस्य सत्यम् श्रीरेषा पाणिरप्यस्याः पारिजातस्य पल्लवः । कुतोऽन्यथा स्त्रवत्येष स्वेदच्छद्मामृतद्रवः ।। (2/17)582।। अत्र स्वेदच्छद्मामृतद्रवोत्पत्तेरन्यथानुपपत्या पारिजातपल्लवकथनादियमर्थापत्तिः । जैसे रत्नावली में - विदूषक - हे महाराज ! आप ने यह अपूर्व श्री को प्राप्त कर लिया है। राजा - हे मित्र ! ठीक ही है ' यह सुन्दरी लक्ष्मी है। इसका हाथ भी परिजात का किसलय है, यदि ऐसा नहीं है तो यह पसीने के बहाने अमृत द्रव कहाँ से टपक रहा है' ।। (2.17) 582।। यहाँ स्वेद के छद्म से अमृत के द्रव की उत्पत्ति का अन्यथा प्रमाण द्वारा पारिजात के पल्लव का कथन होने से अर्थापत्ति है। अथ विशेषणम् सिद्धान् बहून् प्रधानार्थान्नुवक्त्वा यत्र प्रयुज्यते ।
SR No.023110
Book TitleRasarnavsudhakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJamuna Pathak
PublisherChaukhambha Sanskrit Series
Publication Year2004
Total Pages534
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size31 MB
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