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________________ तृतीयो विलासः [३६५] जैसे अभिरामराघव के द्वितीय अङ्क में (बिना पर्दा हटाये प्रवेश करके घबड़ाया हुआ) बटु- हे आर्य! रक्षा करो- रक्षा करो। अत्यधिक विपत्ति में फँस गया हूँ। इत्यादि में वटु का त्रास भय है। अथ माया माया कैतवकल्पना ।।८८।। (13) माया- (इन्द्रजाल इत्यादि) धूर्तता की कल्पना करना माया कहलाती है।।८८॥ यथा रत्नावल्याम् (४.११)'राजा- (आसनादवतीर्य) वयस्य! एष ब्रह्मा सरोजे रजनिकरकलाशेखरः शङ्करोऽयं दोर्भिर्दैत्यान्तकोऽयं सधनुरसिगदाचक्रचिहनैश्चतुर्भिः । एषोऽप्यैरावतस्थस्त्रिदशपतिरमी देवि! देवास्तथैते नृत्यन्ति व्योम्नि चैताश्चलचरणरणत्पुरा दिव्यनार्यः ।।569।। जैसे रत्नावली (४/११) मेंराजा- (आसन से उठकर) हे मित्र! आश्चर्य है, आश्चर्य है। हे मित्र ! (देखो)- आकाश में कमल पर यह ब्रह्मा जी हैं। चन्द्रकला को सिर पर धारण करने वाले यह शङ्कर जी हैं, धनुष, तलवार, गदा तथा चक्र- चार चिह्नों वाली भुजाओं से दैत्यों का विनाश करने वाले यह भगवान् विष्णु हैं। ऐरावत हाथी पर बैठे हुए यह देवराज इन्द्र हैं तथा अन्य यह देवता हैं। यह चञ्चल चरणों में बजते हुए नुपूरों वाली दिव्याङ्गनाएँ नाच रहीं हैं।।569।। इत्यत्र ऐन्द्रजालिकल्पितं कैतवं माया ।। यहाँ इन्द्रजाल से सम्बन्धित धूर्तता माया है। अथ संवृतिः संवृतिः स्वयमुक्तस्य स्वयं प्रच्छादनं भवेत् । (14) संवृति- स्वयं कही गयी बात को छिपाना संवृति कहलाता है।।८७पू.॥ यथा शाकुन्तले (२.१८) 'राजा-(स्वगतम्) अतिचपलोऽयं वदुः। कदाचिदिमां कथामन्तःपुरेभ्यः कथयेत्। भवत्वेवं तावत्-। क्व वयं क्व परोक्षमन्मथो मृगशावैः सममेधितो जनः ।
SR No.023110
Book TitleRasarnavsudhakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJamuna Pathak
PublisherChaukhambha Sanskrit Series
Publication Year2004
Total Pages534
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size31 MB
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