SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 415
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ रसार्णवसुधाकरः ( 10 ) क्रोध- अपराध इत्यादि देखने के कारण चित्त का दीप्त (उत्तेजित) हो जाना क्रोध है । ८७ . ।। [ ३६४ ] यथा रत्नावल्यां तृतीयेऽङ्के (३/१९ पद्यात्पूर्वम्) - 'वासवदत्ता:- हजे कंचणमालिए! एदेण एव्व लदापासेण बन्धिअ उवणेहि णं बह्मणं । एदं विदुट्ठ कण्णआं अग्गदो करेहि' (हजे काञ्चनमाले! एतेनैव लतापाशेन बध्वा गृहाणैनं ब्राह्मणम् । इमामपि दुष्टकन्यकां च अग्रतः कुरु ) । इत्यत्र वासवदत्ताया रोषः क्रोधः । जैसे रत्नावली के तृतीय अङ्क में ( ३/१९ पद्य से पूर्व ) - वासवदत्ता - (क्रोध सहित) हे काञ्चनपाले! इस लतापाश से ही बाँध कर इस ब्राह्मण को पकड़ों और इस दुष्टा कन्या (सागरिका) को आगे करो। यहाँ वासवदत्ता का रोष क्रोध है। अथ साहसम् स्वजीवितनिराकङ्क्षो व्यापारः साहसं भवेत् । ( 11 ) साहस- अपने जीवन के प्रति आकांक्षा-रहित व्यापार साहस कहलाता है ।।८८ पू. ।। यथा मालतीमाधवे (५/१२) ‘अशस्त्रपातमव्याज-पुरुषाङ्गोपकल्पितम् । विक्रीयते महामासं गृह्यतां गृह्यतामिति । 1559 ।। जैसे मालतीमाधव (५/१२) में शस्त्र से अस्पृष्ट छलरहित और मरे हुए किसी पुरुष के किसी अवयव से सम्पादित महामांस (नरमांस) बेचता हूँ, ले लो, ले लो 11568 ।। अत्र माधवस्य महामांसविक्रयव्यापारः साहसम् । यहाँ माधव का महामांस बेचने का कार्य साहस है । अथ भयम् भयं त्वाकस्मिकत्रासः (12) भय - आकस्मिक त्रास भय कहलाता है। यथाभिरामराधवे द्वितीयाङ्के (प्रविश्यापटीक्षेपेण सम्भ्रान्तः) बटुः- अय्य! परित्ताअहि परित्ताअहि। अच्चहिदे पडिदो हिम। (आर्य परित्रायस्व परित्रायस्व । अत्याहिते पतितोऽस्मि ) ( इत्यभिद्रवति । ) इत्यादौ वटुत्रासो भयम् ।
SR No.023110
Book TitleRasarnavsudhakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJamuna Pathak
PublisherChaukhambha Sanskrit Series
Publication Year2004
Total Pages534
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size31 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy