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________________ 'तृतीयो विलासः [३६३ अद्यास्तमेतु भुवनेषु स राजशब्दः क्षत्रस्य शस्त्रशिखिनः शममद्य यान्तु ।।567 ।। इत्यत्र ओजः स्पष्टमेव। जैसे उत्तररामचरित (६.१६) मेंकुश- हे मित्रदाण्डायन! मित्र चिरञ्जीवी लव का राजा की सेना के साथ युद्ध हो रहा है क्या? क्या ऐसा कह रहे हो? हो रहा है, आज लोकों में राजा शब्द विनाश को प्राप्त हो और आज क्षत्रिय की शस्त्ररूपी अग्नि शान्त हो जाय।।567 ।। यहाँ ओज स्पष्ट है। अथ धी: इष्टार्थसिद्धिपर्यन्ता चिन्ता धीरिति कथ्यते । (९) धी- अभीष्ट कार्य की सिद्धि होने तक होने वाली चिन्ताा धी कहलाती है।।८७पू.।। यथा मालविकाग्निमित्रे चतुर्थेऽङ्के (४/२ पद्यादनन्तरम्) 'राजा- (निःश्वस्य सपरामर्शम) सखे! किमत्र कर्त्तव्यम्। विदूषकः- (विचिन्त्य) अत्थि एत्थ उवाओ (अस्त्यत्रोपायः)। राजा-क इव। विदूषकः- (सदृष्टिक्षेपम्) को वि अदिट्ठो सुणिस्सदि। ता कण्णे कहमि। (इत्युपश्लिष्य कणे) (एवं वि! कोऽप्यदृष्टः श्रोष्यति। कर्णे ते कथयामि एवमिव तथा करोति)। राजा- (सहर्षम्) सुष्ठु प्रयुज्यतां सिद्धये। जैसे मालविकाग्नि-मित्र के चतुर्थ अङ्क में (४/२ पद्य से बाद)राजा- (लम्बी साँस लेकर और कुछ सोचकर) हे मित्र! अब क्या किया जाय? विदूषक- (सोचकर) एक उपाय है? राजा- क्या उपाय है? विदूषक- (इधरउधर देख कर) यह हो सकता है। राजा-(प्रसन्न होकर ठीक है, प्रयोजन सिद्धि के लिए काम में लग जाओ। इत्यत्र विदूषकेण धारिणीहस्तमणिमुद्रिकाकर्षणहेतुभूतस्य भुजगविषवेगकपटस्य चिन्तनं धीः। यहाँ विदूषक के द्वारा धारिणी के हाथ की मणिमुद्रिका के कारणभूत सर्प के विषवेग रूप कपट का चिन्तन धी है। अथ क्रोधः क्रोधस्तु चेतसो दीप्तिरपराधादिदर्शनात् ।। ८७।।
SR No.023110
Book TitleRasarnavsudhakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJamuna Pathak
PublisherChaukhambha Sanskrit Series
Publication Year2004
Total Pages534
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size31 MB
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