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________________ [३६६] रसार्णवसुधाकरः परिहासविजल्पितं सखे! परमार्थेन न गृह्यतां वचः ।।570।। अत्र दुष्यन्तेन स्वयमुक्तस्य शकुन्तलाप्रसङ्गस्य स्वयं प्रच्छादनं संवृतिः। जैसे अभिज्ञानशाकुन्तलम् (२/१८) राजा- (अपने मन में) यह वटु (विदूषक) अत्यन्त चञ्चल है, कहीं अन्त:पुर की रानियों से न कह दे। अत: अच्छा इससे इस प्रकार कहता हूँ। ___ हे मित्र! कहाँ हरिण- शावकों के साथ बढ़ा हुआ व्यक्ति जिससे कामदेव दूर है। मजाक में की गयी बड़बड़ को सत्य रूप में ग्रहण मत कर लेना।।570।। यहाँ दुष्यन्त द्वारा स्वयं कहे गये शकुन्तलाविषयकप्रसङ्ग को स्वयं छिपाना संवृति है। अथ भ्रान्ति: भ्रान्तिर्विपर्ययज्ञानं प्रसङ्गस्याविनिश्चायात् ।।८९।। (15) भ्रान्ति- प्रसङ्ग का निश्चित ज्ञान न होने के कारण विपरीत- ज्ञान भ्रान्ति कहलाता है।।८९॥ यथा वेणीसंहारे द्वितीयाङ्के (२/१० पद्यादनन्तरम्) 'भानुमती- तदो अहं तस्स अदिइददिब्वरूविणो णउलस्य दंसणेण उस्सुआ जादा हिअआ । तदो उज्झिअ तं आसण्णट्ठाणे लदामण्डपपरिसरं पविट्टा। (ततोऽहं तस्यातिशयितदिव्यरूपिणो नकुलस्य दर्शननोत्सुका जाता हतहदया च। ततः उज्झित्वा तदासनस्थानं लतामण्डपं प्रविष्टा)। राजा- किं नामातिशयदिव्यरूपिणो नकुलस्य दर्शननोत्सुका जातेति। तत् कथमनया माद्रीसुतानुरक्तया वयमेवं विप्रलब्धाः। मूखी दुर्योधन! कुलटाविप्रलब्धमात्मानं बहुमन्यमानोऽधुना' किं वक्ष्यसि। 'किं कण्ठे शिथिलीकृत (३/९) इत्यदि पठित्वा (दिशो विलोक्य) तदर्थं च तस्याः प्रातरेव विविक्तस्थानाभिलाषः सखीजनसङ्कथासु बद्धः पक्षपातः। दुर्योधनस्तु मोहादविज्ञातबन्यकीहृदयसारः क्वापि परिभ्रान्तः।' इत्यत्र देवीस्वप्नस्यानिश्चियाद् दुर्योधनस्य विपरीतज्ञानं भ्रान्तिः। जैसे वेणीसंहार के द्वितीय अङ्क में (२.१० पद्य से बाद) भानुमती- तब मैं देवताओं से भी अतिशयित रूप वाले नकुल को देखने के लिए उत्सुक हृदय वाली हो गयी। तब उस स्थान को छोड़ कर लतामण्डप में प्रवेश करने लगी। राजा- क्या देवों से भी अधिक रूप- सम्पन्न नकुल को देखने से उत्कंठित (कामपीड़ित) हो गयी। तो क्या माद्री के पुत्र (नकुल) पर अनुरक्त इस पापिनी के द्वारा हम इस प्रकार धोखा दिये गये हैं। मूर्ख दुर्योधन! कुलटा (छिनार स्त्री) के द्वारा छला जाता हुआ (भी) अपने आप बहुत मानने वाला (तू) अब क्या कहेगा? 'किं कण्ठे' (२/९) इत्यादि को पढ़ कर (चारों ओर देखकर) इसीलिए प्रातः काल ही इसकी निर्जनस्थान (के सेवन) की इच्छा तथा सखियों के साथ स्वच्छन्द बातचीत करने
SR No.023110
Book TitleRasarnavsudhakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJamuna Pathak
PublisherChaukhambha Sanskrit Series
Publication Year2004
Total Pages534
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size31 MB
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