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________________ द्वितीयो विलासः | २८७] जैसे (चमत्कार चन्द्रिका में) हे वीर श्रीशिङ्गभूपाल! उस (नायिका) के दोनों कपोलस्थलों पर मकरी (मादा घड़ियाल) के चिह्न को चित्रित करने में प्रस्तुत हुए और चित्रित करने के इच्छुक, आप के उन शत्रु राजाओं की जो अपने वक्षस्थल पर आप की प्रशस्ति लिखने के अभ्यास के कारण (उनके कपोलों पर उसे लिख देते थे) अन्तःपुर में रहने वाली प्रगल्भा रमणियाँ राज्य-लक्ष्मी रूपी सपत्नी के मान के बहाने से लज्जा को धारण करती थी।।491।। यहाँ प्रतिनायक गत (परस्पर विरोधी) शृङ्गार और बीभत्स का नायकगत वीररस की अङ्गता होने के कारण एक स्थान पर समावेश दोषकारक नहीं है। नन्वत्र शत्रणां स्ववक्षसि नायकविरुदविलेखनेन जीवितान्तनिर्मित्सया जनिता निजजीवितजुगुप्सा स्वावरोधसान्निध्यादिभिरुद्दीपिता लज्जानुमितैर्निवेंददैन्यविषादादिभिरुपचिता तदनुमितैरेव मानसिककुत्सादिभिरभिव्यक्ता सती नायकगतं शरणागतरक्षालक्षणं वीरं पुष्णातीति प्रतीयते न पुनः प्रतिनायकगतस्य शृङ्गारस्यनायकवीरोपकरणत्वम्। शंका: - ___ यहाँ प्रतिनायकों (शत्रुओं) की अपने वक्षस्थल पर नायक की विरुद (घोषणा) लिखने से जीवन के अन्त होने से उत्पन्न अपने जीवित रहने के प्रति जुगुप्सा अन्त:पुर के सानिध्य इत्यादि के द्वारा उद्दीप्त होकर लज्जा से अनुमानित निर्वेद, दैन्य, विषाद इत्यादि द्वारा वर्धित होकर उसके अनुमान के द्वारा ही मानसिक कुत्सा इत्यादि के द्वारा अभिव्यक्त होकर (वीभत्स रस) नायकगत रक्षालक्षण वाले वीर (रस) को पुष्ट करता है- ऐसा प्रतीत होता है प्रतिनायक शृङ्गार का नायकगत वीररस की उपकारिता नहीं हो सकती। उच्यते-नायककृपाकटाक्षप्रसादस्थिरीकृतराज्यानां प्रतिनायकानां तादशा विनोदाः सम्भवेयुः। नान्यत्रेति तस्य शृङ्गारस्य नायकवीरोपकरणत्वं विरुदधारणादिपरिचयेन राज्यलक्ष्मीसपत्नीपदप्रयोगेणाभिव्यज्यते। समाधान- नायक की कृपाकटाक्ष को प्राप्त उसके अधीनस्थ राज्य के ही पात्रभूत प्रतिनायकों में इस प्रकार के (शृङ्गारपरक) विनोद हो सकते हैं, अन्यत्र (शत्रुओं में) नहीं, अत एव उस शृङ्गार का नायक की वीरता में उपकरणता (सहयोगिता) विरुदधारण इत्यादि परिचय के कारण राज्यलक्ष्मी का सपत्नी पद (शब्द) के प्रयोग से व्यञ्जित होती है। अथ रसाभासः अङ्गेनाङ्गी रसः स्वेच्छावृत्तिवर्धितसम्पदा । अमात्येनाविनीतेन स्वामीवाभासतां व्रजेत् ।।२६३।। रसाभास- स्वेच्छा वृत्ति के कारण अधिक बढ़ी हुई प्रतिष्ठा वाले अङ्ग (अमुख्य) रस के साथ अङ्गी (मुख्य) रस उसी प्रकार आभासतां को प्राप्त होता है जैसे अविनीत
SR No.023110
Book TitleRasarnavsudhakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJamuna Pathak
PublisherChaukhambha Sanskrit Series
Publication Year2004
Total Pages534
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size31 MB
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