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________________ रसार्णवसुधाकरः अन्यथा ( दो विरोधी रसों के सान्निध्य के कारण) पानक (एक पेय विशेष) इत्यादि में शर्करा के समान गिरे हुए तृण (तिनके) इत्यादि की भी उपकारिता हो जाएगी तथा (विरोधी रसों का सान्निध्य के कारण रस की ) चर्वणा ( रसास्वादन करने ) की कामना में तृण के समान ग्रहणीय होगा । [ २८६ ] निसर्गवैरिणोरङ्गाङ्गिभावात् स्वादाभावो यथालालाजलं स्रवतु वा दशनास्थिपूर्ण - मप्यस्तु वा रुधिरबन्धुरिताधरं वा । सुस्निग्धमांसकलितोज्ज्वललोचनं वा संसारसारमिदमेव मुखं भवत्याः । 1490 ।। अत्र शृङ्गाररसाङ्गतामङ्गीकृतवता बीभत्सेनाङ्गिनोऽपि विच्छेदाय मूले कुठारो व्यापारितः । एवमन्येषामपि विरोधिनामङ्गाङ्गिभावेनास्वादाभावस्तत्र तत्रोदाहरणे द्रष्टव्यः । स्वभाव से विरोधी रसों के अङ्गाङ्गीभाव से रसास्वाद का अभाव जैसेमुख से लार का पानी गिरे अथवा दाँत हड्डियों से पूर्ण होवे अथवा होठ रक्त से सम्पन्न हो अथवा चिकने मांस ये युक्त चमकीली आँखें हो फिर भी आपका ( रमणी का) यह मुख संसार में सर्वोत्तम है । 14901 यहाँ शृङ्गार रस की अङ्गता को स्वीकार करने वाले ने तद्विरोधी बीभत्स रस के द्वारा अङ्गागी (शृङ्गार रस) के अपकर्ष के लिए जड़ में ही कुठाराघात कर दिया है। इसी प्रकार अन्य विरोधी रसों के अङ्गाङ्गिभाव से (रसों के) आस्वाद के अभाव को जगह-जगह उदाहरण में देख लेना चाहिए। भृत्योर्नायकस्येव निसर्गद्वेषिणोरपि ।। २६२ ।। अङ्गयोरङ्गिनो वृद्धौ भवेदेकत्रसङ्गतिः । (अङ्गभूत) परस्पर जिस प्रकार स्वभाव से शत्रुता रखने वाले दो सेवकों की (अङ्गी) नायक (राजा) की वृद्धि ( उत्कर्ष ) में एकत्र सङ्गति (सानिध्य) हो जाता है उसी प्रकार दो विरोधी (अङ्ग) रसों को अङ्गी (रस) के उत्कर्ष में सङ्गति हो जाती है ।। २६२पू.-२६२उ.।। यथा (चमत्कारचन्द्रिकायाम्) - कस्तूर्या तत्कपोलद्वयभुवि मकरीनिर्मितौ प्रस्तुतायां निर्मित्सूनां स्ववक्षस्यतिपरिचयनात् त्वत्प्रशस्तीरुपांशु । वीर श्रीशिङ्गभूप! त्वदरिमहिभुजां राज्यलक्ष्मीसपत्नीमानव्याजेन लज्जां सपदि विदधते स्वावरोधाः प्रगल्भाः ।।490।। अत्र प्रतिनायकगतयोः शृङ्गारबीभत्सयोर्नायकगतवीररसाङ्गत्वादेकत्र समावेशो न दोषाय ।
SR No.023110
Book TitleRasarnavsudhakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJamuna Pathak
PublisherChaukhambha Sanskrit Series
Publication Year2004
Total Pages534
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size31 MB
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