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________________ द्वितीयो विलासः |२८५] स मन्तव्यो रसः स्थायी शेषाः सञ्चारिणो मताः ।।इति।। जैसा कि भरत के नाट्यशास्त्र (७/११९) में कहा गया है "भाव और रस अथवा प्रवृत्ति और वृत्ति-इन समवेत (इकट्ठा हुए) सभी में जिसका अनेक रूप होता है वह स्थायी भाव रस माना जाता है, शेष सञ्चारी भाव होते हैं। तुलाधृतत्वमुभयोर्न स्यात् प्रकरणादिना । कवितात्पर्यविश्रान्तेरेकत्रैवावलोकनात् ।।२५६।। कवि के तात्पर्य (भाव) की समाप्ति का एकत्र दर्शन होने के कारण प्रकरण इत्यादि से (समान बल वाले) दोनों (रसों) की समानता तुलाधृतता (तराजू पर ठीक-ठीक तौलने) की भाँति नहीं होती है।।२५६॥ अथ परस्परविरुद्धरसप्रतिपादनम् उभौ शृङ्गारबीभत्सावुभौ वीरभयानको । रौद्राद्धृतावुभौ हास्यकरुणौ प्रकृतिद्विषौ ।। २५७।। स्वभाववैरिणोरङ्गाङ्गिभावेनापि मिश्रणम् । विवेकिभ्यो न स्वदते गन्धगन्धकयोरिव ।। २५८।। परस्पर विरुद्ध रस का प्रतिपादन शृङ्गार और बीभत्स, वीर और भयानक, रौद्र और अद्भुत तथा हास्य और करुण, ये दो-दो परस्पर स्वभाव से विरोधी रस होते है। स्वभाव से विरोधी इनका अङ्गङ्गिभाव से मिश्रण रसिकों के लिए उसी प्रकार आस्वाद का विषय नहीं होता जिस प्रकार सुगन्ध और गन्धक के मिश्रण की गन्ध।।२५७-२५८॥ विरोधिनोऽपि सान्निध्यादतितिरस्कारलक्षणम् । पोषणं प्रकृतस्य चेदङ्गत्वं न तावता ।।२५९।। विरोधी (अङ्ग रस) के सानिध्य के कारण यदि प्रकृति (अङ्गी रस) का अत्यधिक तिरस्कारपूर्ण पोषण होता है तो भी उसका उतना (यथोचित) अङ्गत्व नहीं होता।।२५९।। यत्किञ्चिदपकारित्वादङ्गस्याङ्गत्वमङ्गिनि । न सनिधिमात्रेण चर्वणामुपकारतः ।।२६०।। यदि अल्पमात्र उपकारिता के कारण अङ्ग (रस) का अङ्गी (रस) में अङ्गत्व होता है तो सन्निधिमात्र से अनुपकार के कारण (रस) चर्वणा को नहीं प्राप्त होता।।२६०॥ अन्यथा पानकायेषु शर्करादेरिवापतेत् । अन्तरा पतितस्यापि तृणादेरुपकारिता ।।२६१।। तच्चर्वणाभिमाने स्यात् संतृणाभ्यवहारिता ।
SR No.023110
Book TitleRasarnavsudhakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJamuna Pathak
PublisherChaukhambha Sanskrit Series
Publication Year2004
Total Pages534
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size31 MB
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