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________________ [२५६] रसार्णवसुधाकरः यथा तन्वी दर्शनसंज्ञयैव लतिकामापृच्छ्य संवर्धितां न्यासीकृत्य च सारिकां परिजने स्निग्धे समं वीणया । ज्योत्स्नामाविशती विशारदसखीवर्गेण कर्णान्तिकं सिक्तेन ह्यनपोतसिंहनृपतेर्नाम्ना पुनर्जीविता ।।445 ।। जैसे तन्वी देखने मात्र से ही बढ़ी हुई लतिका से पूछ कर, स्नेही परिजन के पास सारिका को धरोहर रख कर, वीणा के साथ चाँदनी में प्रवेश करती हुई पुनः स्नेही सखियों के द्वारा (अपने) कानों के समीप में अनपोत सिंह राजा के नाम (को सुन लेने) से पुनर्जीवित हो गयी।।445।। अत्र केचिदभिलाषात् पूर्वतनमिच्छोत्कण्ठालक्षणमवस्थाद्वयमङ्गी-कृत्य द्वादशावस्था इति वर्णयन्ति। तत्रेच्छा पुनरभिलाषान्न भिद्यते, तत्प्राप्तित्वरा-लक्षणोत्कण्ठा तु चिन्तनान्नातिरिच्यत इत्युदासितम्। अवस्थाओं की संख्या विषयक मतभेद इन (अवस्थाओं की संख्या के विषय) में (शारदातनय इत्यादि) कुछ लोग पहली अवस्था अभिलाष से पूर्व में इच्छा और उत्कण्ठा- इन दो और अवस्थाओं को स्वीकार करके बारह अवस्थाओं का वर्णन करते हैं। शिङ्गभूपाल का मत इन दोनों अवस्थाओं में से इच्छा अभिलाष से भिन्न नहीं है। उस इच्छा से प्राप्त उत्कण्ठा भी चिन्ता से भिन्न नहीं है। इसलिए मैं इनके प्रति उदासीन हूँ। अथ मानविप्रलम्भः मुहुः कृतो मेति मेति प्रतिषेधार्थवीप्सया । ईप्सितालिङ्गनादीनां निरोधो मान उच्यते ।। २०२।। (अ) मानविप्रलम्भ- (अभीष्ट आलिङ्गन इत्यादि चेष्टाओं के)प्रतिषेध की इच्छा से बार-बार कहा गया ‘मत, मत' इस प्रकार से निरोध करना मान कहलाता है।।२०२॥ सोऽयं सहेतुनिहेतुभेदाद् द्वेधा मान के प्रकार- वह मान सहेतुज तथा निर्हेतुज भेद से दो प्रकार का होता है।।२०३पू.॥ अत्र हेतुजः । ईर्ष्णया सम्भवेदीर्ध्या त्वन्यासङ्गिनि वल्लभे ।। २०३।।
SR No.023110
Book TitleRasarnavsudhakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJamuna Pathak
PublisherChaukhambha Sanskrit Series
Publication Year2004
Total Pages534
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size31 MB
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