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द्वितीयो विलासः
नोत्तरं भाषते प्रश्ने नेक्षते न शृणोति च ।। १९७।। यत्र ध्यायति निःसंज्ञं जडता सा प्रकीर्तिता ।
अत्र स्पर्शानभिज्ञत्वं वैवर्ण्य शिथिलाङ्गता ।। १८९ ।। अकाण्डहुङ्कृतिः स्तम्भो निःश्वासकृशादयः ।
(९) जड़ता - यह इष्ट है वह अनिष्ट है - यह कुछ भी नहीं जानती, प्रश्न पूछे जाने पर उत्तर नहीं देती, न देखती है, न सुनती है, न ध्यान देती है, इस प्रकार की चेतना शून्यता जड़ता कही जाती है। इसमें स्पर्श को न जानना, निष्प्रभता, अङ्गों में शिथिलता, बिना कारण हुंकार, स्तम्भ, निःश्वास, कृशता इत्यादि अनुभाव होते हैं । । १९७-१९९पू.।।
यथा
सङ्कल्पैरनपोतसिंहनृपतौ
संरूढमूलाङकुरैराक्रान्ता तनुताङ्गता स्मरशरैः शातेव शातोदरी । अस्मन्मूलमिदं तनुत्वमिति किं लज्जालसे लोचने
प्राप्ते पक्षपुटावृत्तिं रतिपतेस्तत्केतनं जृम्भताम् ।।444।।
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जैसे
अनपोत सिंह राजा के प्रति रोमाञ्चित कामना-शक्ति के कारण कामदेव के बाणों से पराभूत (विद्ध) पतली (सौन्दर्य युक्त) कमर वाली (रमणी) ने दुर्बलता (अथवा सौन्दर्ययुक्तता) के समान तनुता (कृशता) को प्राप्त किया। यह तनुता (कृशता) मेरे कारण है क्या? इस प्रकार लज्जा से अलसाए हुए नेत्रों के पलकों के प्रत्यावर्तित होने पर कामदेव का निवास स्थान वह (प्रत्यावर्तन) प्रफुल्लित होवे ।।444 ।।
अथ मरणम्
तैस्तैः कृतैः प्रतीकारैर्यदि न स्यात् समागमः ।। १९९ ।। ततः स्यान्मरणोद्वेगः कामाग्नेस्तत्र विक्रियाः
लीलाशुकचकोरादिन्यासः स्निग्धसखीकरे ।। २०० ।। कलकण्ठकलालाप: श्रुतिर्मन्दानिलादरः ।
ज्योत्स्नाप्रवेशमाकन्दमञ्जरीवीक्षणदयः
।। २०१।।
(१०) मृत्ति (मरण) - उन (विभिन्न ) किये गये सभी उपायों से यदि समागम न हो तो उससे कामग्नि का जो उद्वेग होता है वह मरण ( मृत्ति) कहलाता है। (अपनी ) प्रिय सहेली के हाथ पर लीला (विनोद) पूर्वक शुक चकोर इत्यादि का रखना, मधुर कण्ठ वाली (कोयल) की आवाज का सुनना, मन्द वायु के प्रति सम्मान जताना, चाँदनी में जाना, आम (अथवा अशोक) की मञ्जरीको देखना इत्यादि विक्रियाएँ होती हैं ।। १९९उ.-२०१॥