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________________ द्वितीयो विलासः | १८१] विज्ञानाद् यथा अस्त्यद्यापि चतुस्समुद्रपरिधापर्यन्तमुर्वीतलं सन्ति ज्ञानविदग्धगोष्ठिचतराः केचित् क्वचिद् भूभुजः । तत्रैकोऽपि निरादरो यदि भवेदैको भवेत् सादरो वाग्देवी वदनाम्बुजे वसति चेत् को नाम दीनो जनः ।।321।। विज्ञान से घृति जैसे आज भी समुद्र की सीमा घिरा हुआ भूतल है। ज्ञानियों की सभा में कुशल कहीं कहीं कुछ राजा लोग भी हैं। वहाँ (उन राजाओं के यहाँ) यदि कोई तिरस्कृत तथा कोई सम्मानित होता हो तो हो। यदि सरस्वती (जिसके) मुखकमल में निवास करती हैं तो (उनमें) कौन व्यक्ति गरीब हो सकता है कोई नहीं।।321 ।। गुरुभक्त्या यथा (नागानन्दे१.६) तिष्ठन् भाति पितुःपुरो भुवि या सिंहासने किं तथा यत्संवाहयतः सुखानि चरणौ तातस्य किं राज्यके । किम्भुक्ते भुवनत्रये धृतिरसौ भुक्तोज्झिते या गुरो रायासः खलु राज्यमुज्झितगुरोस्तन्नास्ति कश्चिद्गुणः ।।322 ।। अत्र पितृभक्त्या राज्येऽपि नैःस्पृहा जमूतवाहनस्य । गुरुभक्ति से धृति जैसे (नागानन्द १.७ में) पिता के सामने भूमि पर बैठा हुआ (व्यक्ति) जैसा शोभित होता है, क्या वैसा सिंहासन पर बैठा हुआ (शोभित) हो सकता है? पिता के चरण दबाते हुए को जो सुख मिलता है, क्या वह राज्य से मिल सकता है? पिता के खाने से बचे हुए पदार्थ को खाने से जो सन्तोष (धृति) मिलता है, क्या वह तीनों लोकों के भोग से भी मिल सकता है? पिता का परित्याग करने वाले के लिए राज्य तो केवल आयास मात्र है, क्या उससे कुछ भी लाभ है?।।322 ।। यहाँ पितृभक्ति से राज्य के प्रति भी जीमूतवाहन की निस्पृहता स्पष्ट है। नानार्थसिद्ध्या यथा (वेणीसंहारे ६.४५) क्रोधान्धं सकलं हतं रिपुबलं पञ्चाक्षताः पाण्डवाः पाञ्चाल्या मम दुर्नयेन विहितस्तीर्णो निकारोदधिः । त्वं देवः पुरुषोत्तमः सुकृतिनं मामादृतो भाष से किं नामान्यदतः परं भागवतो याचे प्रसन्नादहम् ।।323 ।। अनेक कार्यों की सिद्धि से धृति जैसे (वेणीसंहार में ६/४५ में)(हम लोगों द्वारा) क्रोधान्ध सम्पूर्ण शत्रुसमूह मार डाला गया और (हम लोग) पाँच पाण्डव
SR No.023110
Book TitleRasarnavsudhakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJamuna Pathak
PublisherChaukhambha Sanskrit Series
Publication Year2004
Total Pages534
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size31 MB
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