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________________ [ १८२ ] रसार्णवसुधाकरः अक्षत हैं मेरी दुर्नीति से उत्पन्न अपमान रूपी सागर द्रौपदी द्वारा पार कर लिया गया। देव पुरुषोत्तम आप मुझसे मङ्गलमय बात कर रहे हैं। प्रसन्न हुए भगवान् (आप) से इससे अधिक अन्य क्या मैं माँगू | 1323 1 अथ हर्ष: - मनोरथस्य लाभेन सिद्ध्या योग्यस्य वस्तुनः ।।७६।। मित्रसङ्गमदैवादिप्रसादादेश्च कल्पितः । मनः प्रसादो हर्षः स्यादत्र नेत्रास्यफुल्लता ।। ७७ ।। प्रियाभाषणमाश्लेषः पुलकानां प्ररोहणम् । स्वेदोद्गमश्च हस्तेन हस्तसम्पीडनादयः ।।७८।। (२५) हर्ष - मनोरथ की पूर्णता, योग्य वस्तु की प्राप्ति, मित्र के मिलने, देवादि की प्रसन्नता से उत्पन्न मन की प्रसन्नता हर्ष कहलाता है। इसमें नेत्रों का विकास, प्रियभाषण, आलिङ्गन, रोमाञ्च, पसीने का निकलना, हाथ से हाथ को दबाना इत्यादि विक्रियाएँ होती है।७६पू.-७८॥ मनोरथस्य यथा (रघुवंशे ३/१७) - निवातपद्मस्तिमितेन चक्षुषा नृपस्य कान्तं पिबतः सुताननम् । महोदधेः पूर इवेन्दुदर्शनाद् गुरुः प्रहर्ष प्रबभूव नात्मनि ।।324।। मनोरथ (की प्राप्ति) से हर्ष जैसे (रघुवंश ३/१७) वायु-निर्निमेष रहित प्रदेश में स्थित कमल के समान दृष्टि से सुन्दर पुत्र के मुख को देखते राजा दिलीप का महान् हर्ष चन्द्र के दर्शन से समुद्र के ज्वर के समान उनके शरीर में नहीं समा सका । 1324।। योग्यवस्तुसिद्धया यथा स रागवानरुणतलेन पाणिना पुलोमजापदतलयावकैरिव हरिं हरिः स्तनितगभीरहेषितं मुखे निरामिषकठिने ममार्ज तम् ।।324।। अत्रोच्चैश्श्रवसो लाभेन देवेन्द्रस्य हर्षः । 1 योग्य वस्तु की प्राप्ति से हर्ष जैसे-. उस हर्षित इन्द्र ने (अपनी) लाल हथेली वाले हाथ से इन्द्राणी के पैरों की महावर की लाली के समान उस गम्भीर हेषा ध्वनि करने वाले घोड़े (उच्चैश्श्रवस् ) को शाकाहार करने से
SR No.023110
Book TitleRasarnavsudhakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJamuna Pathak
PublisherChaukhambha Sanskrit Series
Publication Year2004
Total Pages534
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size31 MB
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