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________________ [१८०] रसार्णवसुधाकरः अथ मति: नानाशास्त्रार्थमथनादर्थनिर्धारणं मतिः । तत्र चेष्टास्तु कर्त्तव्यकरणं संशयच्छिदा ।।७३।। शिष्योपदेशभ्रूक्षेपावूहापोहादयोऽपि च । (२३) मति- अनेक शास्त्रों का मन्थन करके अर्थ का निर्धारण करना मति कहलाता है। इसमें कर्तव्य-पालन, संशय का निराकरण, शिष्य को उपदेश देना, भ्रूविक्षेप, ऊहापोह इत्यादि चेष्टाएँ होती है।।७३-७४पू.॥ यथा (अनर्घराघवे २.६२) दशरथकुले सम्भूतं मामवाप्य धनुर्धरं दिनकरकुलास्कन्दी कोऽयं कलङ्कनवाङ्करः । इति वनितामेनां हन्तुं मनो विचिकित्सते यदधिकरणं धर्मस्थेयं तवैव वचांसि नः ।।319।। जैसे (अनर्घराघव २.६२ में) दशरथ के कुल में उत्पन्न तथा धनुर्धारी मुझ को प्राप्त करके सूर्य के वंश को स्त्रीवधरूपी यह नया कलङ्क लग रहा है, इसलिए मुझे हिचकिचाहट नहीं हो रही है क्योंकि धर्माधिकार में हमारे लिए आप के वचन ही प्रमाण है।।319।। अथ धृतिः ज्ञानविज्ञानगुर्वादिभक्तिनानार्थसिद्धिभिः ।।७४।। लज्जादिभिश्च चित्तस्य नैस्पृह्य धृतिरुच्यते । अत्रानुभावा विज्ञेया प्राप्तार्थानुभवस्तथा ।।७५।। अप्राप्तातीतनष्टार्थानभिसंक्षोभणादयः । (२४) धृति- ज्ञान, विज्ञान, गुरुओं के प्रति भक्ति, अनेक कार्यों की सिद्धि, लज्जा इत्यादि से चित्त की निस्पृहता (अभिलाषा- रहितता) धृति कहलाता है। इसमें प्राप्तार्थ का अनुभव अप्राप्तार्थ का अभिक्षोभ होना इत्यादि अनुभाव जानना चाहिए।।७४उ.-७६पू.।। ज्ञानाद् यथा (वैराग्यशतके ५५) अशीमहि वयं भिक्षामाशावासो वसीमहि । शयीमहि महीपृष्ठे कुर्वीमहि किमीश्वरैः ।।320।। ज्ञान से धृति जैसे (वैराग्यशतक ५५) हम लोग भिक्षा को (माँग कर) खाएंगे, दिग्वस्त्र को पहनेगें और भूतल पर सोयेगें। इस ऐश्वर्य की क्या आवश्यकता है।।3 20।।
SR No.023110
Book TitleRasarnavsudhakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJamuna Pathak
PublisherChaukhambha Sanskrit Series
Publication Year2004
Total Pages534
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size31 MB
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