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________________ प्रथमो विलासः [१०७] माश्लिष्यन् पुलकोत्कराङ्किततनुं गोपी हरिः पातु वः ।।172।। वाणी द्वारा सम्भोगेच्छा प्रकट करने से जैसे (काव्यप्रकाश में उद्धृत १२६) हे अच्युत (सम्भोग द्वारा स्खलित होकर तृप्त न करने वाले कृष्ण)! क्या आपके दर्शन मात्र से (सम्भोगेच्छा की ) तृप्ति हो सकती है? उल्टे एकान्त स्थान में स्थित हम दोनों को देख कर दुष्ट पुरुष कुछ और ही प्रकार की (हमारे सम्भोगादि की) कल्पना करने लगते हैं। (पर यहाँ मिला कुछ भी नहीं)। इसलिए मैं जाती हूँ, इस प्रकार (अच्युत' अर्थात् स्खलित न होने वाले) इस सम्बोधन की शैली से (अपनी इच्छापूर्ति की ओर से निराश और कृष्ण के पास) व्यर्थ बैठने के खेद से अलसायी हुई गोपी का आलिङ्गन कर रोमाञ्चित शरीर वाले कृष्ण तुम्हारी रक्षा करें।।172।। ___ अत्र निजावस्थानविलम्बनस्य व्यर्थत्वं धीरत्वादिसूचकैरच्युतादिपदैर्वदन्त्या तयापि गोपिकया वाचा सम्भोगेच्छा प्रकटितेति नर्म। यहाँ अपने रुकने में विलम्ब करने की व्यर्थता धैर्यसूचक 'अच्युत' इत्यादि पदों के द्वारा कहने वाली उस गोपिका के द्वारा वाणी से सम्भोगेच्छा प्रकट की गयी, अत: नर्म है। वेषेण सम्भोगेच्छाप्रकटनाद् यथा अभ्युद्गते शशिनि पेशलकान्तदूतीसंल्लापसंवलितलोचनमानसाभिः । अग्राहि मण्डनविधिविपरीतभूषाविन्यासह सितसखीजनमङ्गनाभिः ।।173 ।। अत्र विपरीतन्यस्तलक्षणभूषणेन वेषेण जनितैः सखीजनहासैः कामिनीनां सम्भोगेच्छा प्रकटितेति नर्म। वेष के द्वारा सम्भोगेच्छा प्रकट करने से जैसे चन्द्रमा के उदित हो जाने पर कोमल तथा प्रिय दूती की बातचीत से सिक्त नेत्रों और मन वाली स्त्रियों ने प्रसाधन- कार्य में विपरीत आभूषणों के पहनने के कारण हँसी की पात्र हुई अपनी सखी को पकड़ लिया।।173 ।। यहाँ विपरीत आभूषणों को पहनने के कारण वेष से उत्पन्न सखियों की हँसी से कामिनियों की सम्भोगेच्छा प्रकट हो रही है अत: नर्म है। चेष्टया सम्भोगेच्छा प्रकटनाद यथा आलोसच्चिअ सूरे घरणी घरसमिअस्स घेत्तूण । णेच्छन्तस्स वि चलणे धावइ हसन्ती हसन्तस्स ।।174।। (आलोक एव सूर्ये गृहिणी गृहस्वामिनो गृहीत्वा। नेच्छन्तोऽपि चरणौ धावति हसन्ती हसतः।।)
SR No.023110
Book TitleRasarnavsudhakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJamuna Pathak
PublisherChaukhambha Sanskrit Series
Publication Year2004
Total Pages534
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size31 MB
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