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________________ प्रथमो विलासः [१०३] सर्वाभिर्महिषीभिरभिरम्बुनिधयो विश्वेऽपि विस्मापिताः ।।156।। वाली (विहस्य) चिराय रात्रिश्चरवीरचक्रमाराङ्कवैज्ञानिकः पश्यतस्त्वाम् । सुधासधर्माणमिमां च वाचं न शृण्वतस्तृप्यति मानसं मे ।।157।। अत्र धीरोदात्तधीरोद्धतयोरामवालिनोः परम्परं युद्धचिकीर्षाभिप्राययोगादन्योन्यपराक्रमोत्कर्षवर्णनात् संल्लापः।। जैसे (अनर्घराघव ५.४४-४५ में) राम- (वाली से कहते हैं-) विश्वविजयी रावण को भी अपने भुजास्तम्भों में बन्दी बना कर तुमने सन्ध्यावन्दन-काल में समाधि लगाया, कार्तवीर्य के चरित को प्रत्यक्ष देखने वाली रेवा को छोड़ कर समुद्र की सभी स्त्री नदियों तथा सम्पूर्ण संसार तुम्हारे द्वारा किये गये उस सन्ध्यासमाधि के दर्शन से विस्मित हो गया ।।156।। वाली-(हंसकर) बहुत देर तक राक्षस-मण्डली के वीर समुदाय को मारने की कला में निपुण तुम को देख कर तथा अमृतोपम तुम्हारी बातों को सुनकर मेरा मन तृप्त नहीं हो रहा है।।157।। यहाँ धीरोदात्त राम और धीरोद्धत वाली का परस्पर युद्ध की अभिलाषा के अभिप्राय के योग के कारण एक दूसरे के पराक्रम के उत्कर्ष का वर्णन होने से संल्लाप है। अथोत्थापक: प्रेरणं यत्परस्यादौ युद्धायोत्थापकस्तु सः ।।२६५।। २. उत्थापक- (युद्ध के) प्रारम्भ में युद्ध के लिए दूसरे (शत्रु) को प्रेरित करना उत्थापक कहलाता है।।२६५उ.।। यथानघराघवे (४.५३) नृपानप्रत्यक्षान् किमपवदसे नन्वयमहं शिशुक्रीडाभग्नत्रिपुरहरधन्वा तव पुरः । अहङ्कारक्रूरार्जुनभुजवनव्रश्चनकलानिसृष्टार्थो बाहुः कथय कतरस्ते प्रहरतु ।।158।। अत्र रामभद्रेण प्राक्प्रहाराय जामदग्न्यः प्रेरित इत्युत्थापकः। जैसे अनर्घराघव (४.५३ में)राम परशुराम से कहते हैं- जो सामने नहीं है उन नृपों की निन्दा क्यों करते हो?
SR No.023110
Book TitleRasarnavsudhakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJamuna Pathak
PublisherChaukhambha Sanskrit Series
Publication Year2004
Total Pages534
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size31 MB
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