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________________ - [१०४] रसार्णवसुधाकरः बालक्रीड़ा में त्रिपुरारि के धनुष को तोड़ देने वाला मैं तेरे आगे खड़ा हूँ। आज्ञा दो कि अहङ्कार भरे अर्जुन के बाहुओं के खण्डन की कला में निपुण तुम्हारा कौन-सा हाथ पहले मुझ पर प्रहार करेगा?॥१५८॥ यहाँ रामभद्र के द्वारा पहले प्रहार के लिए परशुराम प्रेरित किये गये हैं, अत: (यहाँ) उत्थापक है। अथ सङ्घात्य: मन्त्रशक्त्यार्थशक्त्या वा दैवशक्त्याथ पौरुषात् । सङ्घस्य भेदनं यत्तु सङ्घात्यः स उदाहृतः ।।२६६।। ३. सङ्घात्य- मन्त्र के बल से, अर्थ के बल से, दैव बल (दैवशक्ति) से अथवा पौरुष से (शत्रु के) संघ का भेदन (भङ्ग करना) सङ्घात्य कहलाता है।।२६६॥ मन्त्रो नयप्रयोगः। तस्य शस्या यथा मुद्राराक्षसे चाणक्येन शत्रुसहायानां भेदनात्सङ्घात्यः। अर्थशक्त्या यथा महाभारते आदिपर्वणि दैवैस्तिलोत्तमालक्षणेनार्थेन सुन्दोपसुन्दयोरतिस्निग्धयोर्भेदनात् सङ्घात्यः। मन्त्र का अर्थ है- राजनीतिज्ञता का प्रयोग । उस राजनीतिज्ञता के प्रयोग से जैसे मुद्राराक्षस नाटक में चाणक्य द्वारा शत्रु के सहायकों में भेद उत्पन्न करने के कारण सङ्घात्य है। अर्थ के बल से जैसे महाभारत के आदिपर्व में देवताओं द्वारा तिलोत्तमा रूपी अर्थ के द्वारा अत्यन्त प्रिय सुन्द और उपसुन्द में भेद उत्पन्न कर देने से सङ्घात्य है। दैवशक्त्या यथा महावीरचरिते (४.११)माल्यवान हा वत्साः खरदूषणप्रभृतयो वध्याः स्थ पापस्य मे हा हा वत्स विभीषण त्वमपि मे कार्येण हेयः स्थितः । हा मद्वत्सल वत्स रावण महत्पश्यामि ते सङ्कटं वत्से केकसि हा हतासि न चिरात् त्रीन् पुत्रकान् पश्यसि ।।159।। अत्र राघवानुकूलदैवमोहितेन माल्यवता खरदूषणत्रिशिरसां भेदः संविहित इति सङ्घात्यः। दैवशक्ति से जैसे महावीरचरित (४.११) मेंमाल्यवान् हा वत्स खरदूषण आदि! मैं पापी तुम्हारे मरण की ही बात सोचा करता हूँ, हा वत्स विभीषण! कार्यवश तुम्हें भी छोड़ देना पड़ रहा है। हा मेरे स्नेही रावण! तुम्हारे ऊपर बहुत बड़ा सङ्कट देख रहा हूँ। बेटी केकसि! तुम थोड़े ही दिनों में अपने तीन पुत्रों से हाथ धो बैठोगी।।159।। यहाँ राघव (राम) के अनुकूल दैवबल से मोहित माल्यवान् द्वारा खरदूषण और
SR No.023110
Book TitleRasarnavsudhakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJamuna Pathak
PublisherChaukhambha Sanskrit Series
Publication Year2004
Total Pages534
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size31 MB
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