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________________ प्रथमो विलासः . [५] गभीरगमनं यथा (कुमारसम्भवे ६/५०) तानानय॑मादाय दूरं प्रत्युद्ययौ गिरिः । नमयन् सारगुरुभिः पादन्यासैर्वसुन्धराम् ।।130।। गम्भीर गमन जैसे (कुमारसम्भव ६.५० में) उन पूज्य ऋषियों के लिए अर्घ्य लेकर हिमालय ने दूर तक आकर उनका स्वागत किया। उस समय उसके ठोस एवं भारयुक्त पैरों के बोझ से धरती पग-पग पर धंसने सी लगी।।130।। धीरदृष्टिर्यथा ततो गभीरं विनिवर्तितेन प्रभातपङ्केरुहबन्धुरेण । अपश्यदक्ष्णा मधुमात्मजन्मा प्रत्याबभाषे स च दैत्यदूतम् ।।131।। धीरदृष्टि जैसे तब आत्मजन्मा उस भगवान् ने विनिवारित तथा प्रभातकालीन कमल के समान विनत नेत्र से गम्भीर मधु को देखा और दैत्यदूत से फिर कहा।।131।। सस्मितं वचो यथा (शिशुपालवधे २.७) द्योतितान्तस्सभैः कुन्दकुड्मलाग्रदतः स्मितैः । स्नपितेनाभवत् तस्य शुद्धवर्णा सरस्वती ।।132।। सस्मित वचन जैसे (शिशुपालवध २.७ में) कुन्दकलिकाग्र के समान दाँतों वाले उन (श्रीकृष्ण भगवान् ) की वाणी सभामध्य को प्रकाशित करने वाले स्मितों से नहलायी गयी के समान शुद्ध वर्ण (स्पष्ट अक्षर-समुदायवाली) अथवा-स्नान करने से अति शुभ्र (रंगवाली) हुई।।132।।। अथ माधुर्यम् तन्माधुर्यं यत्र चेष्टादृष्ट्यादेः स्पृहणीयता ।। ३. माधुर्य- जहाँ चेष्टा और दृष्टि इत्यादि में कामनाशून्यता (लापरवाही) होती है, वह माधुर्य कहलाता है।।२१८पू.।। यथा (कुमारसम्भवे ४.२३) ऋजुतां नयतः स्मरामि ते शरमुत्सङ्गनिषण्णधन्वनः । मधुना सह सस्मितां कथां नयनोपान्तविलोकितं च तत् ।।133 ।। जैसे (कुमारसम्भव के ४.२३ में) तुम धनुष को गोद में रखकर बाणों को सीधा करते हुए वसन्त से वार्तालाप के समय भी बीच-बीच में जो तिरछी निगाहों से मुझे देख लिया करते थे, वह दृश्य मैं किसी प्रकार से भुला नहीं पा रही हूँ।।133।।।
SR No.023110
Book TitleRasarnavsudhakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJamuna Pathak
PublisherChaukhambha Sanskrit Series
Publication Year2004
Total Pages534
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size31 MB
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