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________________ प्रथमो विलासः सा कन्दुकैः कृत्रिमपुत्रकैश्च । रेमे मुहुर्मध्यगता सखीनां क्रीडारसं निर्विशतीव बाल्ये ।।127 ।। क्रीडित जैसे (कुमारसम्भव के १.२९ में) - वह पार्वती बाल्य-सुलभ क्रीडारस में निमग्न होकर मन्दाकिनी के किनारे कभी बालुकामय मण्डपों (बालू से बनाए गए घरौदों) से, कभी गेंद से, कभी गुड़ियों से, सखियों के साथ निरन्तर खेल रही थी । 1127 ।। रसा. ९ केलिर्यथा (किरातार्जुनीये ८.१९ ) - व्यपोहितुं लोचनतो मुखानिलैरपायन्त्यं किल पुष्पजं रजः । पयोधरेणोरसि काचिन्नुमनाः जघनोन्नतपीवरस्तनी ।।128 ।। इति ।। प्रियं केलि जैसे (किरातार्जुनीय ८.१९ मे) - उन्नत और स्थूल पयोधरों वाली किसी दूसरी देवाङ्गना ने आँख से पुष्पराग को फूँककर निकाल सकने में असमर्थ अपने प्रियतम के वक्षःस्थल में मुँह ऊँचा करके (पराग निकालने के बहाने) अपने स्तन से चोट किया ।।128 ।। अत्रोच्यते भावतत्त्ववेदिना आद्यः प्रागेव भावादिसमुत्पत्तेश्च कन्याविनोदमात्रत्वादनुभावेषु प्रेमविस्रम्भमात्रत्वान्नान्यस्याप्यनुभावता शिङ्गभूभुजा ।। २१२ ।। शैशवे । नेष्यते ।। २१३। [ ८३ ] 1 अतो विंशतिरित्येषा सङ्ख्या सङ्ख्यावतां मता ।। २१४ ।। शिङ्गभूपाल का मत : - इस विषय में भाव-तत्त्वों के ज्ञाता शिङ्गभूपाल कहते हैं- पहले वाला क्रीडित शैशव (अवस्था) में भाव इत्यादि के उत्पन्न होने से पहले कन्याओं का विनोद मात्र होने से भावों में उनकी गणना अभीष्ट नहीं है। प्रेम की दुर्बलता होने के कारण अन्य (केलि) भी अनुभाव नहीं हो सकता। इस लिए अनुभावों की संख्या निर्धारित करने वाले बीस संख्या का ही निर्धारण करते हैं।। २१२उ. - .-२१४॥ अथ पौरुषसात्त्विकाः शोभा विलासो माधुर्यं धैर्यं गाम्भीर्यमेव च । ललितौदार्यतेजांसि सत्त्वभेदास्तु पौरुषाः । । २१५।।
SR No.023110
Book TitleRasarnavsudhakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJamuna Pathak
PublisherChaukhambha Sanskrit Series
Publication Year2004
Total Pages534
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size31 MB
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