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________________ [७२] रसार्णवसुधाकरः के समान रोमाञ्चित हो उठा, जिससे उनके हृदय का (शङ्कर के प्रति) मधुर-भाव छिपा न रह सका। उनकी आँखे लज्जा से झुक गयी और वह थोड़ी तिरछी सी होकर खड़ी रह गयी। उस समय उनका मुख और भी सुन्दर लगने लगा।।105।। यहाँ रोमाञ्च, मुख नीचा करने, आँखों के तिरछा होने इत्यादि विकारों के द्वारा चित्त-व्यापार के अधिक प्रकाशन से हेला है। अथ शोभा सा शोभा रूपभोगाद्यैर्यत् स्यादङ्गविभूषणम् । ४. शोभा- रूप-भोग इत्यादि द्वारा अङ्गों का सजाना शोभा है।।१९५पू.।। यथा अशिथिलपरिरम्भादर्धशिष्टाङ्गरागामविरतरतवेगादसलम्बोरुजूटिम् । उपसि शयनगेहादुच्चलन्तीं स्खलन्तीं करतलधृतनीवी कातराक्षीं भजामः ।।106।। जैसे गाढ़ आलिङ्गन के कारण (आधे मिट जाने से) आधे अवशिष्ट अङ्गराग (अङ्गों के अनुलेप) वाली, सुरत में लगे रहने से होने वाले वेग के कारण कन्धों पर लटकती हुई लम्बी चोटी वाली, प्रातःकाल शयनगृह से लड़खड़ा कर चलती हुई तथा हथेलियों से नीवी को पकड़ी हुई (अपनी) कातर नेत्रों वाली (प्रियतमा) को याद कर रहा हूँ।।106।। अथ कान्ति:.. शोभेव कान्तिराख्याता मन्मथाप्यायनोज्जवला ।।१९५।। ५- कान्ति- काम से आप्यायित (भरे हुए) नैसर्गिक मनोभाव से उद्दीप्त शोभा ही कान्ति होती है।।१९५॥ यथा उत्तिष्ठन्त्या रतान्ते भरमुरगपतौ पाणिनैकेन कृत्वा धृत्वा चान्येन वासः शिथिलितकबरीभारमंसे वहन्त्याः ।। भूयस्तत्कालकान्तिद्विगुणितसुरतप्रीतिना शौरिणा वः - शय्यामालिङ्ग्य नीतं वपुरलसलसद्बाहु लक्ष्म्याः पुनातु ।।107 ।। अत्र पूर्वरतान्तजनितायाः वपुकान्तेरुत्तररतारम्भहेतुत्वान्मन्मथाप्यायितत्वम्। जैसेसुरत के अन्त में एक हाथ से (शय्यास्वरूप) शेषनाग पर भार डाल कर उठती हुई,
SR No.023110
Book TitleRasarnavsudhakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJamuna Pathak
PublisherChaukhambha Sanskrit Series
Publication Year2004
Total Pages534
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size31 MB
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