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________________ प्रथमो विलासः क्षणं (२) हाव- ग्रीवा और नि:श्वास से युक्त भूनेत्र इत्यादि द्वारा थोड़ा प्रकाशित होने वाला भाव ही हाव कहलाता है ।।१९३।। यथा धात्रीवचोभिर्ध्वनिमर्मगर्भैः सरोषस्मितमात्तलज्जा । पाञ्चालिकाद्वन्द्वमयोजयत् सा सम्बन्धिनी स्वस्य सखीजनस्य 11104 ।। [ ७१ ] अत्र चित्तविकाराणां रोषहर्षलज्जादीनां कुटिलेक्षणस्मितनताननत्वादिभिरीषत्प्रकाशनादयं हावः । जैसे सेविका (या धाय) की रहस्यपूर्ण (गूढ़ार्थ वाली) वाणी को सुन कर रोष और मुस्कान से युक्त लज्जा को प्राप्त करके अपनी सखी लोगों से सम्बन्ध रखने वाली उस नायिका ने दो पाञ्चालिकाओं (गुड्डे और गुड्डी) को मिला दिया ।।104 ।। यहाँ रोमाञ्च, हर्ष, लज्जा, इत्यादि चित्तविकारों का तिरछी आँखों से देखना, मुस्कान, मुख का नीचे कर लेना इत्यादि द्वारा थोड़ा प्रकाशन होने के कारण हाव है। अथ हेला नानाविकारैः सुव्यक्तः शृङ्गाराकृतिसूचकैः । हाव एव भवेद्धेला ललिताभिनयात्मिका ।। १९४ ।। ३. हेला शृङ्गार की आकृति के सूचक अनेक विकारों से सुव्यक्त हाव ही हेला होता है। वह ललित और अभिनयात्मक होता है ।। १९४ ॥ यथा (कुमारसम्भवे ३/६८)विवृण्वती शैलसुतापि भावमङ्गैः स्फुटद्वालकदम्बकल्पैः । साचीकृता चारुतरेण तस्थौ मुखेन पर्यस्तविलोचनेन 11105 || अत्र रोमाञ्चमुखसाचीकरणपर्यस्तविलोचनत्वादिविकारैश्चित्तव्यापारस्यातिप्रकाशत्वेन हेला। जैसे (कुमारसम्भव ३.६८ में) शङ्करजी की दृष्टि पड़ते ही पार्वती का सम्पूर्ण अङ्ग प्रफुल्लित कोमल कदम्ब के पुष्प
SR No.023110
Book TitleRasarnavsudhakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJamuna Pathak
PublisherChaukhambha Sanskrit Series
Publication Year2004
Total Pages534
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size31 MB
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