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________________ प्रथमो विलासः [७३] दूसरे हाथ से वस्त्र को पकड़कर शिथिल हुए जूड़े (चोटी) के भार को कन्धे पर ढोती हुई, पुनः उस समय की कान्ति के कारण दूने हुए सुरत-प्रेम वाले विष्णु के द्वारा आलिङ्गन करके पुनः पलङ्ग पर लाए गये शरीर वाली लक्ष्मी की आलस्य से शोभायमान भुजा तुम लोगों को पवित्र करे।।107।। यहाँ पहली बार के सुरत के अन्त में उत्पत्र शरीर की कान्ति से तत्पश्चात् पुन: सुरत के आरम्भ होने से काम से भरा होना स्पष्ट है। अथ दीप्तिः कान्तिरेव वयोभोगदेशकालगुणादिभिः । उद्दीपितातिविस्तारं याता चेद् दीप्तिरुच्यते ।।१९६।। ६. दीप्ति- वय, भोग, देशकाल, गुण इत्यादि के द्वारा उद्दीप्त तथा अतिविस्तार को प्राप्त कान्ति ही दीप्ति कहलाती है।।१९६॥ यथा (मेघदूते २.६) यत्र स्त्रीणां प्रियतमभुजोच्छ्वासितालिङ्गितानामङ्गग्लानिं सुरतजनितां जालमार्गप्रविष्टैः । तत्संरोधापगमविशदैश्चन्द्रपादैनिशीथे व्यालुपन्ति स्फुटजललवस्यन्दिनश्चचन्द्रकान्ताः ।।108।। अत्र प्रियतमालिङ्गनसौधज्योत्स्नादिगुणैः सुरतग्लानिव्यालोपनादुत्तरसुरतोत्साहरूपा दीप्तिः प्रतीयते। जैसे (मेघदूत २.६ में) जिस अलका में अर्धरात्रि के समय तुम्हारी रूकावट हट जाने से निर्मल चन्द्रमा की किरणों के स्पर्श से स्वच्छ जल-बिन्दुओं को टपकाने वाली, चैदोवे की जाली से लटक रही चन्द्रकान्त मणियाँ प्रियतम की बाहुओं के (द्वारा कस कर किये गये) आलिङ्गन के कारण श्रान्त-स्त्रियों की रतिक्रीड़ा से उत्पन्न शारीरिक थकान को दूर करती है।।108 ।। । यहाँ प्रियतम के आलिङ्गन, शुभ्र चाँदनी इत्यादि गुणों द्वारा सुरत की थकान के दूर हो जाने के कारण पुन: उत्तरवर्ती सुरत के लिए उत्साह रूप दीप्ति प्रतीत होती है। अथ प्रागल्भ्यम्__निःशङ्कत्वं प्रयोगेषु प्रगल्भत्वं प्रचक्षते । ७. प्रागल्भ्य- सम्भोग-कार्य में निःशङ्कता प्रगल्भता कहलाती है।।१९७पू.।। यथा (कुमारसम्भवे ८/१६) शिष्यतां निघुवनोपदेशिनः
SR No.023110
Book TitleRasarnavsudhakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJamuna Pathak
PublisherChaukhambha Sanskrit Series
Publication Year2004
Total Pages534
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size31 MB
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