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________________ [ ५६ ] रसार्णवसुधाकरः अपेक्षते मृदुस्पर्शं सहते नोद्धतां रतिम् ।। १६७ ।। सखीकेलिरता स्वाङ्गसंस्कारकलितादरा । न कोपहर्षौ भजते सपत्नीदर्शनादिषु ।। १६८ ।। नातिरज्यति कान्तस्य सङ्गमे किन्तु लज्जते । (अ) प्रथम यौवन- इस यौवन में नायिका के नेत्र का बाहरी कोना थोड़ा चञ्चल होता है। मुखकमल काम के कारण प्रफुल्लित रहता है। कपोल गर्व के संवेग से युक्त होते हैं। अधर पूर्णरूप से अरुण नहीं होते। अङ्ग लावण्य के आविर्भाव के कारण रमणीय होते है। भावसौरभ दमकता रहता है । स्तनों के अङ्कुर प्रकट होते हैं। अङ्गों के जोड़ अस्पष्ट होते हैं। यह (नायिका) का प्रथम यौवन है। इस अवस्था में वर्तमान मृगनयनी (नायिका) सुकुमार स्पर्श की अपेक्षा करती है। वह उद्धत रति को सहन नहीं करती। सखियों के साथ क्रीडा में लीन रहती है और अपने अङ्गों को संस्कृत करने (सजाने) में आदर देती है। सपत्नी के देखने इत्यादि कार्यों में कोप अथवा हर्ष नहीं करती। प्रियतम का सङ्गम होने पर अधिक अनुरक्त नहीं होती किन्तु लज्जा करती है।। १६५-१६९पू.।। यथा (दशरूपकावलोके उद्घृतम् १६०) - विस्तारी स्तनभार एष गमितो न स्वोचितामुन्नतिं रेखोद्भासि तथा वलित्रयमिदं न स्पष्टनिम्नोन्नतम् । मध्येऽस्या ऋजुरायतार्धकपिशा रोमावली दृश्यते रम्यं शैशवयौवनव्यतिकरोन्मिश्रं जैसे दशरूपक में उद्धृत १०६ यह स्तन- भार बढ़ने वाला है किन्तु अभी उचित विस्तार को नहीं प्राप्त हुआ है। यह त्रिवली रेखाओं से तो प्रकट हो रही है किन्तु स्पष्टतः नीची-ऊँची नहीं है। इसके मध्य में सीधी विस्तृत रोमावली बन गयी है, जो आधी कपिश वर्ण की (भूरी) ही है। इस प्रकार इसकी यौवन और शैशव के संसर्ग (व्यतिकर) से मिश्रित शरीर रमणीय है ।।71 ।। अस्या चेष्टा यथा ममैव पूर्वर्तते 1711 आविर्भवत्प्रथमदर्शनसाध्वसानि सावज्ञमादृतसखीजनजल्पितानि सव्याजकोपमधुराणि गिरेः सुतायाः वः पान्तु नूतनसमागमचेष्टितानि 1172 1 1 इस (प्रथम यौवन) की चेष्टाएँ जैसे शिङ्गभूपाल का ही पर्वतकी पुत्री (पार्वती की ) प्रथम दर्शन में उत्पन्न लज्जा वाली अवज्ञापूर्वक (तिरस्कार से ) प्रियसखियों के साथ तथा कोप के बहाने मधुर बात करने वाली - इस प्रकार
SR No.023110
Book TitleRasarnavsudhakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJamuna Pathak
PublisherChaukhambha Sanskrit Series
Publication Year2004
Total Pages534
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size31 MB
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