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________________ कातन्त्रव्याकरणम् १३९८. निर्वाणोऽवाते [४।६।११३] [सूत्रार्थ वातभिन्न अर्थ में 'निर्वाण' शब्द निपातन से सिद्ध होता है।।१३९८। [दु०वृ०] निर्वाण इति निपात्यते वातविषयश्चेद् धात्वर्थो न भवति। निर्वाणोऽग्निः, दीप्त्युपरमे वर्तते। निर्वाणो भिक्षुः, रागादिप्रशमनेऽत्र। अवात इति किम्? निर्वाणो वात:। निरोधोऽत्र। कथं निर्वाणो दीपो वातेन? अत्र वात: करणं न त्वाधारः। निर्वातं वातेनेति भावेऽपि वात एव कर्ता।।१३९८। [वि०प०] निर्वाण। अवात इत्याधारसप्तमीयम् अत आह– वातविषयकश्चेदिति। एवं हि वातविषये धातोरों भवति। यदि वात एव कर्ता स्यात् तस्मादवातकर्तरीत्यर्थः। न त्वाधार इति। क्रियाया वातः कर्ता न भवति किन्तर्हि करणं साधकतमत्वात्। कर्ता तु प्रदीप एवेति णत्वत्र विरुध्यते। निर्वातमिति। भावो हि भवितारमन्तरेण न भवति। न चेह वातादन्यः कर्ताऽस्तीति वातस्य कर्तृत्वम्।।१३९८। [क० त०] निर्वा०। अवात इति व्यतिक्रमनिर्देशाननिश्चयः। अन्यथा वाते निर्वाण इति कृतं स्यात्। वात एव कर्तेति। यतः क्रियाश्रयः कर्ता, अत: कर्ता क्रियाभावो भवत्येव। टीकायाम् अन्यस्त्विति। वातेऽर्थे वाच्ये इत्यर्थः।। १३९८। [समीक्षा वातभिन्न अर्थ में 'निर्वाण' शब्द दोनों ही व्याकरणों में निपातनविधि से निष्पन्न किया गया है। पाणिनि का सूत्र है- “निर्वाणोऽवाते'' (अ०८।२।५०)। अत: उभयत्र समानता ही है। [विशेष वचन १. भावो हि भवितारमन्तरेण न भवति (वि०प०)। २. यत: क्रियाश्रयः कर्ता, अत: कर्ता क्रियाभावो भवत्येव (क० त०)। [रूपमिद्धि] १-२. निर्वाणोऽग्निः। निर्वाणो भिक्षुः। निर्वा +क्त-न-ण+सि। 'निर्' उपसर्गपूर्वक ‘वा गतिगन्धनयो:' धात् से 'क्त' प्रत्यय, प्रकृत सूत्र द्वारा निपातन से निष्ठातकार को नकार, नकार को णकारादेश तथा विभक्तिकार्य।।१३९८। १३९९. भित्तर्णवित्ताः शकलाधमर्णभोगेषु [४।६।११४] [सूत्रार्थ शकल (खण्ड) अर्थ में 'भित्त' शब्द, अधमर्ण अर्थ में 'ऋण' शब्द तथा भोग अर्थ में 'वित्त' शब्द निपातन से सिद्ध होता है।।१३९९।
SR No.023091
Book TitleKatantra Vyakaranam Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJankiprasad Dwivedi
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year2005
Total Pages824
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size38 MB
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