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________________ ६१८ कातन्त्रव्याकरणम् [दु० टी०] वेषु०। 'लुभ गायें, लुभ विमोहने' (३।७३,५।२९) इति विशेषाभावाद् भाष्ये ग्रहणात् प्रतिषेध इति स्मृतिः। परादपीटो नित्येन विकरणेन व्यवहितं सार्वधातुकमित्याह- तदा सार्वधातुक इति। तीति अन्तग्रहणानुवर्तनमत्रेति। विधिरत्रेति यस्य विधिस्तदादौ वर्णग्रहणमित्यर्थः। कृतीति न वर्तते अधिकारस्येष्टत्वात्।।१३६६। [वि०प०] वेषु०। परमपीह वेटं बाधित्वा नित्यत्वाद् भवता विकरणेन सार्वधातुकस्य व्यवहितत्वादाह- तकारादावसार्वधातुक इति। एवमुत्तरत्रापि। कृतीत्यपि न स्मर्यतेऽनिष्टत्वादिति।।१३६६।। [क० त०] वेषु०। वा-धातु शङ्कयते आदन्तत्वेन प्रतिषेधस्य सिद्धत्वात्।।१३६६। [समीक्षा 'रष्टा- एषिता, लोब्धा-लोभिता' इत्यादि शब्दरूपों के सिद्ध्यर्थ विकल्प से इडागम दोनों ही व्याकरणों में किया गया है। 'इषु-सह-लुभ्-रुष्' इन चार धातुओं में समानता है, परन्तु कातन्त्र में पाँचवीं धात् ‘विष्' पढ़ी गई है। पाणिनि ने 'रिष्' धातु का ही जल्द पार किया है। उनका सूत्र है- "तीषसहलुभरुषरिषः'' (अ०७।२६४८)। अत: उसका पर्याप्त समानता है। विशेष वचन १. कृनांक ३ जन, कारस्येष्टत्वात् (दु०टी०)। २. कृतात्यपि न मन चात् (वि०प०)। (रूपसिद्धि १- ५. एषिता, एष्टा। इषु-इट-तृच्+सि। सहिता, सोढा। सह-इट् - तृच्-सि। लोभिता, लोब्धा। लुभ्-इट्-तृच्-सि। रोषिता, रोष्टा। रुष्+इट्+तृच्-सि। वेषिता, वेष्टा। विष् इट् + तृच्-सि। ‘इषु-सह-लुभ-रुष-विष्' धातुओं से तृच् प्रत्यय, प्रकृत सूत्र से वैकल्पिक इडागम तथा विभक्तिकार्य। इडागम के अभाव में ‘एष्टा' इत्यादि रूप।।१३६६। १३६७. रधादिभ्यश्च [४।६।८२] [सूत्रार्थ रधादिगणपठित धातुओं से उत्तरवर्ती यकारादिभिन्न व्यजनांद असार्वधातुक प्रत्यय के परे रहते उससे पूर्व में इट् का आगम विकल्प से होता है।।१३६७।
SR No.023091
Book TitleKatantra Vyakaranam Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJankiprasad Dwivedi
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year2005
Total Pages824
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size38 MB
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