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कातन्त्रव्याकरणम् [दु० टी०]
वेषु०। 'लुभ गायें, लुभ विमोहने' (३।७३,५।२९) इति विशेषाभावाद् भाष्ये ग्रहणात् प्रतिषेध इति स्मृतिः। परादपीटो नित्येन विकरणेन व्यवहितं सार्वधातुकमित्याह- तदा सार्वधातुक इति। तीति अन्तग्रहणानुवर्तनमत्रेति। विधिरत्रेति यस्य विधिस्तदादौ वर्णग्रहणमित्यर्थः। कृतीति न वर्तते अधिकारस्येष्टत्वात्।।१३६६।
[वि०प०]
वेषु०। परमपीह वेटं बाधित्वा नित्यत्वाद् भवता विकरणेन सार्वधातुकस्य व्यवहितत्वादाह- तकारादावसार्वधातुक इति। एवमुत्तरत्रापि। कृतीत्यपि न स्मर्यतेऽनिष्टत्वादिति।।१३६६।।
[क० त०] वेषु०। वा-धातु शङ्कयते आदन्तत्वेन प्रतिषेधस्य सिद्धत्वात्।।१३६६। [समीक्षा
'रष्टा- एषिता, लोब्धा-लोभिता' इत्यादि शब्दरूपों के सिद्ध्यर्थ विकल्प से इडागम दोनों ही व्याकरणों में किया गया है। 'इषु-सह-लुभ्-रुष्' इन चार धातुओं में समानता है, परन्तु कातन्त्र में पाँचवीं धात् ‘विष्' पढ़ी गई है। पाणिनि ने 'रिष्' धातु का ही जल्द पार किया है। उनका सूत्र है- "तीषसहलुभरुषरिषः'' (अ०७।२६४८)। अत: उसका पर्याप्त समानता है।
विशेष वचन १. कृनांक ३ जन, कारस्येष्टत्वात् (दु०टी०)। २. कृतात्यपि न मन चात् (वि०प०)। (रूपसिद्धि
१- ५. एषिता, एष्टा। इषु-इट-तृच्+सि। सहिता, सोढा। सह-इट् - तृच्-सि। लोभिता, लोब्धा। लुभ्-इट्-तृच्-सि। रोषिता, रोष्टा। रुष्+इट्+तृच्-सि। वेषिता, वेष्टा। विष् इट् + तृच्-सि। ‘इषु-सह-लुभ-रुष-विष्' धातुओं से तृच् प्रत्यय, प्रकृत सूत्र से वैकल्पिक इडागम तथा विभक्तिकार्य। इडागम के अभाव में ‘एष्टा' इत्यादि रूप।।१३६६।
१३६७. रधादिभ्यश्च [४।६।८२] [सूत्रार्थ
रधादिगणपठित धातुओं से उत्तरवर्ती यकारादिभिन्न व्यजनांद असार्वधातुक प्रत्यय के परे रहते उससे पूर्व में इट् का आगम विकल्प से होता है।।१३६७।