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चतुर्थे कृत्प्रत्ययाध्याये षष्ठः क्त्वादिपादः
५९७ 'क् -ग्' आदेशों का निषेध किया है। अन्तर यह है कि पाणिनि का कवर्गादेशनिषेध सामान्य निर्देश है। पाणिनि का सूत्र है- “यजयाचरुचप्रवचर्चश्च'' (अ० ७।३।६६)। फलत: 'क्-ग्' आदेशों का साक्षात् निषेध करने से कातन्त्रकार ने अर्थावबोध में सरलता प्रस्तुत की है।
[रूपसिद्धि]
१-५. प्रवाच्यः। प्र+वच्+घ्यण+सि। अWः। ऋच्+घ्यण+सि। रोच्यः। रुच्+घ्यण +सि। याच्यः। याच्+घ्यण+सि। त्याज्यः। त्यज्+घ्यण+सि। प्रकृत सूत्र द्वारा चकार को ककार तथा जकार को गकार आदेश का निषेध।। १३४५।
१३४६. वचोऽशब्दे [४।६।६१] [सूत्रार्थ
शब्दभिन्न विषय में घ्यण् प्रत्यय के परे रहते ‘वच्' धातु-घटित चकार को ककारादेश नहीं होता है।।१३४६।
[दु०१०]
वचेय॑णि को न भवति अशब्दविषये। वाच्यम्। अशब्द इति किम्? वाक्यं पदसमुदायः। वक्रवाक्यरचनारमणीय इत्यपि स्यात्।।१३४६।।
[वि०प०]
वचो०। कथमधिवाक्यं दशरात्रस्य दशमं दिनमुच्यते? यस्मिन् याज्ञिका मौनमाचरन्ति इत्यशब्दविषयत्वात् प्रतिषेधः स्यादिति? सत्यम्, सज्ञाशब्दोऽयं यथाकथञ्चिद् व्युत्पाद्यते इति न दोषः, असंज्ञायाम् अधिवाच्यमिति प्रतिषेध एव। वक्रेत्यादि। वाक्यस्य रचना वाक्यरचना, वक्रा चासौ वाक्यरचना चेति तया रमणीयो ग्रन्थः। इह समासेनोत्तरकालं ग्रन्थशब्दो गम्यते, नावयवेन वाक्यशब्देन तत् कथं शब्दविषयतेति न शङ्कनीयम्, अवयवोऽपि वाक्यशब्द: शब्दप्रवृत्तिरेवेत्याह- इत्यपि स्यादिति।।१३४६।
[समीक्षा
'वाच्य-अवाच्य' आदि शब्दों के सिद्ध्यर्थ ककारादेश का निषेध दोनों ही व्याकरणों में किया गया है। पाणिनि का सूत्र है- “वचोऽशब्दसंज्ञायाम्' (अ०७।३।६७)। अत: उभयत्र समानता ही है।
[रूपसिद्धि]
१. वाच्यम्। वच्+घ्यण+सि। 'वच भाषणे' (२।३०) धातु से "ऋवर्णव्यञ्जनान्ताद् घ्यण' (४।२।३५) सूत्र द्वारा 'घ्यण' प्रत्यय, उपधादीर्घ, “चजोः कगौ धुड्घानुबन्धयोः” (४।६।५६) से प्राप्त ककारादेश का प्रकृत सूत्र द्वारा निषेध तथा विभक्तिकार्य।।१३४६।