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चतुर्थे कृदध्याये पञ्चमो घञादिपादः [समीक्षा
'उद्यानपुष्पभञ्जिका, शालभञ्जिका' आदि संज्ञापरक शब्दरूपों के सिद्ध्यर्थ कातन्त्रकार ने 'वुञ्' प्रत्यय तथा पाणिनि ने ‘ण्वुल्' प्रत्यय किया है – “सञ्ज्ञायाम्' (अ०३।३।१०९)। अनुबन्धयोजना अपने अपने व्याकरण की प्रक्रिया के अनुरूप की गई है। अत: अनुबन्ध-योजना के अतिरिक्त अन्य प्रकार की तो उभयत्र समानता ही कही जा सकती है।
[रूपसिद्धि]
१-२. उद्यानपुष्पभञ्जिका। उद्यानपुष्प + भन्ज् + वुञ् - अक + आ + सि। उद्यानपुष्पाणि भज्यन्ते यस्यां क्रीडायां सा। वीरणपुष्पप्रचायिका।वीरणपुष्य + प्र + चि + वुञ् - अक + आ + सि। वीरणपुष्पाणि प्रचीयन्ते यस्यां क्रीडायां सा। 'उद्यानपुष्पवीरणपुष्प' के उपपद में रहने पर 'भन्ज् - चि' धातुओं से 'वुञ्' प्रत्यय, अक आदेश, इकार को वृद्धि, आय आदेश, इत्त्व, स्त्रीलिङ्ग में 'आ' प्रत्यय तथा विभक्तिकार्य।।१२६०।
१२६१. पर्यायाहर्णेषु च [४।५।८९] [सूत्रार्थ
'पर्याय - अर्ह - ऋण' अर्थों में वर्तमान धातु से “वुञ्' प्रत्यय होता है।।१२६१।
[दु० वृ०]
एषु वर्तमानाद् धातोर्तुञ् भवति। अद्य भवत: शायिका। अर्हति भवान् इक्षुभक्षिकाम्, ऋणे-पायसभोजिकां मे धारयसि। चकारादुत्पत्तौ च – इक्षुभक्षिका मे उदपादि। न भवति च - चिकीर्षा जिहीर्षा मे उपपद्यते। भावमात्रे च दृश्यते - का नाम शायिका अन्येष्वधीयमानेषु, का नाम आसिका अन्येषु गच्छत्सु इति।।१२६१।
[समीक्षा
'शायिका, इक्षुभक्षिकाम्' इत्यादि शब्दरूपों के सिद्ध्यर्थ कातन्त्रकार ने 'वुञ्' प्रत्यय तथा पाणिनि ने ‘ण्वुच्' प्रत्यय किया है – “पर्यायाहर्णोत्पत्तिषु ण्वुच् " (अ०३।३।१११)। अनुबन्धयोजना को छोड़कर अन्य प्रकार की तो प्राय: उभयत्र समानता ही है।
[रूपसिद्धि]
१-३. शायिका। शीङ् + वुञ् - अक + आ + सि। इक्षुभक्षिकाम् । इक्षु + भक्ष् + वुञ् - अक + आ + अम् । पायसभोजिकाम् । पायस + भुज् + वुञ् - अक + आ + अम् । ‘शीङ् - भक्ष - भुज् ' धातुओं से 'वुञ्' प्रत्यय, ‘अक' आदेश, इत्त्व, स्त्रीलिङ्ग में 'आ' प्रत्यय तथा विभक्तिकार्य।।१२६१।