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कातन्त्रव्याकरणम्
१२४७. व्रज्यजोः क्यप् [४।५।७५] [सूत्रार्थ] स्त्रीलिङ्ग में भावार्थ में 'बज् - यज्' धातुओं से 'क्यप्' प्रत्यय होता है।।१२४७। [दु० वृ०] भावे स्त्रियामाभ्यां क्यब् भवति। व्रज्या, इज्या। इष्टिरित्यपि भावे ।।१२४७। [दु० टी०]
व्रज्०। क्यप: ककार इह यण्वभावं प्रयोजयति पकारस्तूत्तरार्थो ह्रस्वात् तोऽन्तो भवतीति।।१२४७।
[वि० प०]
व्रज्यजोः। इष्टिरिति। यजनमिष्टिः। "भृजादीनां षः'' (३।६।५९)। एतदपि पूर्ववदप्यधिकारादित्यर्थः।। १२४७।
[समीक्षा]
'व्रज्या, इज्या' शब्दरूपों के सिद्ध्यर्थ दोनों ही आचार्यों ने 'क्यप्' प्रत्यय का विधान किया है। पाणिनि का सूत्र है- “व्रज्यजोर्भावे क्यप्'' (अ० ३।३।९८)। अत: उभयत्र समानता ही है।
[रूपसिद्धि]
१-२. व्रज्या। व्रज् + क्यप् + आ + सि। इज्या। यज् + क्यप् + आ + सि। 'व्रज् -यज्' धातुओं से 'क्यप' प्रत्यय, 'क् -प्' अनुबन्धों का प्रयोगाभाव, स्त्रीलिङ्ग में 'आ' प्रत्यय तथा विभक्तिकार्य।। १२४७। १२४८. समजासनिसदनिपतिशीसुविद्यटिचरिमनिभृत्रिणां
सज्ञायाम् [४।५।७६] [सूत्रार्थ]
स्त्रीलिङ्ग में सज्ञा अर्थ के गम्यमान होने पर 'सम-पूर्वक अज , आस् , निपूर्वक सद् - पत्, शीङ् , सु, विद् , अट् , चर्, मन् , भृञ् ' तथा 'इण्' धातु से 'क्यप्' प्रत्यय होता है।।१२४८।।
[दु० वृ०]
एभ्य: संज्ञायां क्यब् भवति भावे स्त्रियाम् । समज्या, आस्या। निषीदन्त्यस्यामिति निषद्या। निपतन्त्यस्यामिति निपत्या। शेरतेऽस्यामिति शय्या, अधिकरणेऽपि। सवनं सुत्या। विद्या, करणेऽपि। अटेश्चक्रीयितान्तादेवाभिधानात् - अटाट्या! परिपूर्वादेव चरे:- परिचर्या। मन्या, भृत्या, इत्या। अप्यधिकारात् - आसुति:, भृतिः, समितिः। भाव इति किम् ? भार्या। सज्ञायामिति किम् ? संवित्तिः।।१२४८।