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________________ ३३२ कातन्त्रव्याकरणम् [समीक्षा] 'राजयुध्वा, सहयुध्वा' शब्दरूपों के सिद्ध्यर्थ दोनों ही व्याकरणों में 'क्वनिप् प्रत्यय किया गया है । पाणिनि के दो सूत्र हैं - "राजनि युधिकृञः, सहे च" (अ०३।२ ९५, ९६ ) । अतः पाणिनि ने सूत्रद्वयप्रयुक्त गौरव किया है, जबकि कातन्त्रकार ने लाघव अपनाया है । [रूपसिद्धि] + १. सहयुध्वा। सह + युध् + क्वनिप् सि । सह युध्यते स्म । 'सह' शब्द के उपपद में रहने पर ‘युध सम्प्रहारे' ( ३।११०) धातु से प्रकृत सूत्र द्वारा 'क्वनिप् प्रत्यय, 'क् - इ प् ' अनुबन्धों का प्रयोगाभाव, लिङ्गसञ्ज्ञा तथा विभक्तिकार्य । २. राजयुध्वा। राजन् + युध् + क्वनिप् + सि । राजानं युध्यते स्म । 'राजन् ' शब्द के उपपद में रहने पर ‘युध् ' धातु से 'क्वनिप् ' प्रत्यय आदि कार्य पूर्ववत् ।। १०९४| १०९५. कृञश्च [४ । ३ । ९० ] [सूत्रार्थ] कर्म कारक में ‘सह-राजन् ' शब्दों के उपपद में रहने पर अतीतार्थक ‘डु कृञ् करणे' (७।७) धातु से ‘क्वनिप् ' प्रत्यय होता है ||१०९५| [दु० वृ०] सहराज्ञोः कर्मणोरुपपदयोरतीते वर्तमानात् कृञः क्वनिब् भवति । सह करोति स्म सहकृत्वा । एवं राजकृत्वा ।।१०९५। [क० च०] कृञः । सहराज्ञोर्युधुकृञोरित्युक्ते यथासंख्ये स्यात् । ‘युध् - कृञ् इति समाहारः कर्तव्यश्चेत्, तदा स्पष्टार्थः ॥ १०९५ । , [समीक्षा] 'सहकृत्वा, राजकृत्वा' शब्दों के सिद्ध्यर्थ दोनों ही व्याकरणों में 'क्वनिप् प्रत्यय का विधान किया गया है । पाणिनि के दो सूत्र हैं- “राजनि युधिकृञोः, सहे च" (अ० ३।२।९५,९६) । इस प्रकार पाणिनीय गौरव तथा कातन्त्रकारीय लाघव स्पष्ट है । , [रूपसिद्धि] + १. सहकृत्वा । सह कृ + क्वनिप् + सि । सह करोति स्म । 'सह' शब्द के उपपद में रहने पर “डु कृञ् करणे' (७/७) धातु से प्रकृत सूत्र द्वारा 'क्वनिप् ' प्रत्यय, अनुबन्धों का प्रयोगाभाव, तकारागम तथा विभक्तिकार्य । २. राजकृत्वा । राजन् + कृ + क्वनिप् + सि । राजानं करोति स्म । 'राजन्' शब्द के उपपद में रहने पर 'कृ' धातु से 'क्वनिप्' प्रत्यय आदि कार्य पूर्ववत् ॥ १०९५।
SR No.023091
Book TitleKatantra Vyakaranam Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJankiprasad Dwivedi
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year2005
Total Pages824
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size38 MB
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